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________________ अहिंसा का आध्यात्मिक आधार मानव के प्रति जो सहज स्वभाविक स्नेह होना चाहिए, वह भी नहीं दीखता है । आज अखबारों के पृष्ठ हिंसा, हत्या, चोरबाजारी आदि के समाचारों से भरे रहते हैं । निहत्थी जनता पर सिपाही गोलियां चला देते हैं। आवेग और उन्माद में भड़की हुई जनता सार्वजनिक स्थानों को नष्ट-भ्रष्ट करने में अपना गौरव समझती है। यह अस्वस्थ सार्वजनिक जीवन देख कर हृदय काँप उठता है। इसी तरह व्यक्तिगत जीवन में भी आए दिन हिंसा फूट पड़ती है। किसी से जरा-सी बात पर लड़ाई हुई तो जान का खतरा पैदा हो जाता है। जार्ज बनार्ड शा ने कहा था कि पश्चिम के देश भी इस दोष से मुक्त नहीं हैं। इस निर्दयता का एक मुख्य कारण मनुष्य का खान-पान और रहन-सहन भी है। मांस खाने की वृत्ति से करुणा का बहुत कम सम्बन्ध है । पशु को निर्मम हो कर मारना-काटना और खाना-मानव की वृत्तियों पर बुरा असर डालता है। जब कोमल हृदय के बच्चे यह सब देखते हैं तो उनमें भी सहसा नृशंसता और निर्दयता के अंकुर फूट पड़ते हैं ; उनमें क्रूरता के संस्कार बैठ जाते हैं। इसलिए बनार्ड शा ने कहा- “यदि पश्चिम क्रूरता के कष्टों से बचना चाहता है तो उसको अपनी करुणा का विचार पशुजगत् तक ले जाना होगा। करुणा की नींव गहराई में ले जानी होगी; क्योंकि संस्कारवश मानव पशु-पक्षी को निशाना बनाते-बनाते अपने पड़ोसी को मार देने में भी संकोच या भय महसूस नहीं करेगा। जब हृदय क्रूर और सख्त हो जाता है, तब किसी भी तरह का निर्दय कृत्य करते समय मन में संकोच नहीं होता।" हम लोग आये दिन डकैती की घटनाएँ पढ़ते और सुनते हैं। जिन्होंने डकैती का दृश्य कभी देखा है, उन्हें मालूम होगा कि उन डाकुओं के हृदय कितने कठोर और निर्मम होते हैं। अबोध बच्चों और अबला बहनों तक को वे किस क्रूरता से मारते हैं, यहाँ तक कि यदि कोई विरोध में कुछ बोल गया अथवा अपनी रक्षा के लिए सामना कर बैठा तो उसे गोली का भी शिकार बनाते देर नहीं लगाते । आखिर उनका हृदय इतना क्रूर कैसे बना ? यह एक मनोवैज्ञानिक प्रश्न है । मानस-शास्त्रियों को भी इस गम्भीर प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ना होगा। वास्तव में इस क्रूरता का उद्गम-स्थान बाल्यावस्था में कोमल-मन और मस्तिष्क पर असंगत और अमानवीय संस्कार का पड़ना ही है। बचपन से ही, पशु-पक्षियों को मारने, उनके शरीर को अलग-अलग काट कर खाने में आनन्द लेने की प्रवृत्ति का ही यह व्यापक परिणाम है। कत्लखाने बन्द करो भारतवर्ष में अब तक हिंसा का ताण्डव होता रहा । लेकिन आज तो हम स्वतन्त्र हैं । अब हमें पवित्र संस्कारों के आधार पर समाज की पुनर्रचना करनी चाहिए। आजादी के बाद भी यदि हम देश का करोड़ों रुपया लगा कर बड़े-बड़े कत्लखाने खोलेंगे तो क्या इससे स्नेह और करुणा का विकास होगा ? क्या इससे मानवता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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