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अहिंसा-दर्शन
स्थान कहाँ है ? हृदय में स्नेह और करुणा लबालब भरी होनी चाहिए । उसका बहाव शरीर, परिवार या पड़ोसी तक रुकना नहीं चाहिए । पशु-पक्षी और जड़-जगत् तक उसका विस्तार होना चाहिए। भारतीय ऋषि गाय के अमृतोपम दूध और बैल की उत्पादनशक्ति की उपादेयता को लक्षित करके गाय को माता और बैल को पिता का स्थान देते हैं। यह कितना ऊंचा आदर्श है ? वह ऋषि अपनी माता और गौमाता में कोई अन्तर नहीं देखता । हमारे यहाँ बन्दर को भी हनुमान का प्रतीक माना गया है। हमारे प्रेम का पात्र केवल मनुष्य ही नहीं, बल्कि विराट् सृष्टि के समस्त तत्त्व उसके पात्र हैं। अद्वत की दृष्टि
आज हृदय सूखा-सा नजर आता है । हमारे ऋषि-मुनियों और बुजुर्गों ने लकीर के फकीर बन कर कोई काम नहीं किया । उन्होंने नई-नई रेखाएँ खींची, नये-नये मार्ग बनाए, नये-नये सिद्धान्त रचे, उन्होंने हर आत्मा में भगवान् के दर्शन किये । कहा भी है
___ "यस्मिन् शरीरे आत्मैव पश्यति" वेद का ऋषि सृष्टि के समस्त प्राणियों का प्रतिबिम्ब अपनी ही आत्मा में ही देखता है, कितना उदात्त दृष्टिकोण हैं ! विश्व को अपनी आत्मा में और अपनी आत्मा को सम्पूर्ण विश्व में देखना मन की कोमल करुणा का ज्वलन्त उदाहरण है। वह ऋषि संकीर्णता की कैद को तोड़ कर समस्त बन्धनों और सीमाओं को लाँघ कर व्यापक विश्व का दर्शन करता है । मेरी आत्मा कुछ अलग है, उससे मुझे कुछ प्यार है, जब तक ऐसी भावना रहेगी, तब तक अद्वैत नहीं उड़ेगा। छोटे-छोटे हजारों स्रोत मिल कर गंगा का विशाल रूप धारण करते हैं । गंगा, अलग और छोटे-छोटे स्रोत अलग, ऐसा भेदभाव वहाँ नहीं चल सकता है । अलग-अलग प्राणियों के सम्मिलन से विश्व का यह रूप दृष्टिगोचर होता है। तब भला व्यक्ति स्वयं को सृष्टि से यानी समष्टि से कैसे अलग कर सकता है ? जो विश्व में अपने को और अपने में विश्व को देखता है, वह घृणा-द्वेष और संकुचित भावनाओं से ऊपर उठ जाता है । यह वेदान्त का चिन्तन मानव के लिए प्रेरणा का प्रतीक है । सम्पूर्ण भारतीय चिन्तन का मूल-स्वर एक ही है । भले ही भाषाएँ अलग-अलग रही हों । भगवान् महावीर भी कहते हैं कि 'समस्त जीव जीना चाहते हैं, जैसे कि मैं चाहता हूँ। विश्व के समस्त प्राणियों की यही इच्छा है, जो मेरी इच्छा है। सुख से रहना जैसे मुझे प्रिय है, वैसे ही सबको प्रिय है।' जब अन्तःकरण में ऐसा विशुद्ध कारुण्य भरा हो, तब द्वैत और वैर के लिए कहाँ गुंजाइश रह जाती है ? मांसाहार और क्रूरता
इस उदात्त करुणा के स्थान पर आज तो संकुचित करुणा भी नहीं है ।
१ "सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउं न मरिज्जिउं"
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