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________________ अहिंसा का आध्यात्मिक आधार १६ अहिंसा और दया का रूप प्रकट होता है । ओ मानव ! तुम कहीं भी रहो, कैसे भी रहो ! परन्तु तुम्हारे हृदय का प्रेम निरन्तर बहता रहना चाहिए । यह पावन स्रोत कहीं सूख न जाय । तुम में यदि स्नेह नहीं रहेगा, तो कुछ भी नहीं रहेगा । फूल सुगन्ध और रंग से तभी सुन्दर मालूम देता है, जब तक उसमें जलतत्त्व है। इसी तरह तुम में तभी तक आकर्षण रहेगा, जब तक सहृदयता का झरना बहता रहेगा, जब तक दूसरे के दुःख को अपने दुःख के समान समझते रहोगे और जब तक दूसरे के जीवन को अपना ही जीवन समझोगे । यदि हृदय में संवेदना नहीं है, तो वहाँ मनुष्यता कैसे बसेगी ? आखिर राक्षस में और मनुष्य में अन्तर ही क्या है ? राक्षस भी मनुष्य जैसा दीखता है। पर, भावनाओं से और वृत्तियों से एक व्यक्ति राक्षस कहलाता है तथा दूसरा व्यक्ति मनुष्य कहलाता है। भारतवर्ष कहता है कि मनुष्य का शरीर होना ही पर्याप्त नहीं है; मनुष्य का मन होना चाहिए, मनुष्य की बुद्धि, वृत्ति और भावना भी होनी चाहिए । मनुष्य की दृष्टि में एक विशेष प्रकार का वैशिष्ट्य होना चाहिए । उसका समाज के प्रति, पड़ोसी के प्रति, पशु-पक्षियों के प्रति कैसा व्यवहार हो, यह स्वयं उसका मन फैसला करता है। प्रेम की गंगा दूर तक बहाओ __ संसार में हर एक मनुष्य भागीरथ है । सुनते हैं---भागीरथ गंगा लाये थे। उसी तरह हर एक मनुष्य प्रेम और करुणा की गंगा लाता है । इसलिए वह भी भागीरथ के समान ही है । यह गंगा मनुष्य के हृदय में से निकलती है । बुद्ध, महावीर, राम, कृष्ण, ईसा आदि ने इसी स्नेहगंगा की तीव्र धारा प्रवाहित की । किन्तु कुछ छोटे भागीरथ ऐसे भी हैं, जो आगे नहीं बढ़ पाते और गंगा बीच में ही अटक जाती है । कुछ लोगों के शरीर में ही यह गंगा अटक कर रह गई, यानी शरीर से बहुत प्रेम है । अपने शरीर के प्रति वे लोग पूरा ध्यान रखते हैं । कुछ लोगों की गंगा आगे बढ़ी और परिवार तक आ कर अटक गई । माँ-बाप, पति-पत्नी आदि तक ही स्नेह सीमित हो गया । पड़ोसी चाहे जैसी स्थिति में क्यों न हो, उन्हें कुछ पता नहीं होता है । पड़ोसी के घर से अपने घर की दीवार जरूर मिलती है, किन्तु मन से मन नहीं मिलता है। वह गंगा बहुत संकुचित सीमा में बँध गई है। कुछ लोग तो इतने संकुचित हो जाते हैं कि अपने परिवार के स्वार्थ के लिए या पुत्रादि को बचाने के लिए देवी-देवताओं के आगे पशु-पक्षियों का बलिदान तक करने को तैयार हो जाते हैं। कुछ लोग पुत्रप्राप्ति के लिए भी इस तरह की निर्मम और निर्दय प्रक्रियाएँ कर बैठते हैं, जिन्हें सुन कर आत्मा में मिहरन-सी होती है । इसका मतलब यही हुआ कि स्नेहगंगा परिवार तक सीमित रह गई । आगे नहीं बढ़ पाई। कुछ लोगों की यह स्नेहगंगा और आगे बढ़ी, पर मनुष्य तक आ कर रुक गई। यह ठीक है कि जितना उत्तरोत्तर विकास होता है, उतना अच्छा है। हम उस विकसित भावना का आदर करते हैं । किन्तु करुणा और प्रेम का स्रोत अजस्र तथा अबाध गति से बहते रहना चाहिए। भला, इसमें सीमा को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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