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________________ ३४० अहिंसा-दर्शन उसी दरिद्रनारायण की झोंपड़ी में है और वही पुण्यानुबंधी सच्चा पुण्य है-जिससे सारी वसुधा प्रकाशमान होती है। मारवाड़ी भाषा में कहते हैं-'उससे सुखे-सुखे मोक्ष प्राप्त होता है।' पापाचार के द्वारा रुपये, पैसे, अठन्नियाँ और चवन्नियाँ ज्यादा मिल गईं तो किस काम की ? यदि रूखी-सूखी रोटी विवेक, विचार और नीति के साथ मिल जाती है, तो वही पुण्य का सीधा मार्ग है। दुनियाभर के अत्याचारों के बाद और निरीह प्राणियों का खून बहा कर अगर हीरे और मोती मिल भी जाएँ वह पुण्य का मार्ग नहीं माना जा सकता। आदर्श-जीवन एक बड़े विचारशील श्रावक ने कहा कि मुझे अन्याय और अत्याचार के सिंहासन पर यदि चक्रवर्ती का साम्राज्य भी मिले तो उसे ठुकरा दूंगा और अनन्तअनन्त काल तक उसकी कल्पना भी नहीं करूंगा। मेरे सत्कर्मों के फलस्वरूप, मेरी तो यही भावना है कि मुझे अगला जन्म लेना ही न पड़े । यदि जन्म लेना ही पड़े तो मैं किसी ऐसे परिवार में ही जन्म लूं, जहाँ विवेक हो, विचार हो, न्याय और नीति हो; फिर चाहे उस परिवार में जूठन उठाने का ही काम मुझे क्यों न करना पड़े ! वस्तुतः यही निर्णय ठीक है और आदर्श-जीवन का प्रतीक है। यह आदर्शपूर्ण निर्णय, भारत की मूल संस्कृति का द्योतक है और यह वह प्रतीक है जिसे जैन-धर्म ने अपना गौरव माना है । इसमें जो उमंग, उत्साह और आनन्द है, वह अन्यत्र कहाँ ? भाग्यशाली कौन ? उदाहरणस्वरूप दो यात्री चले जा रहे हैं। बहुत बड़ा मैदान है, सैकड़ों कोसों तक गाँव का नाम नहीं है। दोनों यात्री भयंकर रास्ते से गुजर रहे हैं । उन दोनों को भूख लग आई । भूख के मारे छटपटाते हुए, व्याकुल होते हुए चले जा रहे हैं । अकस्मात् उस समय वे एक तरफ दो थैले पड़े हुए देखते हैं । उन्हें देख कर वे अपने को भाग्यशाली समझते हैं और आपस में फैसला करते हैं कि यह थैला तेरा, और वह मेरा । अर्थात्-वे दोनों उन थैलों का बँटवारा कर लेते हैं । वे दोनों थैलों के पास पहुंचते हैं और अपने-अपने थैले को खोलते हैं । एक में भुने चने निकलते हैं और दूसरे में हीरे और मोती । अब यहाँ किसके पुण्य का उदय हुआ है ? जिसे जवाहरात का थैला मिला है, वह उन्हें ले कर अपने सिर से मार लेता है और कहता है कि इनकी अपेक्षा यदि दो मुट्ठी चने मिल जाते तो ही अच्छा था ! उनसे प्राण तो बच जाते ! ऐसी स्थिति में जीवन-रक्षा की दृष्टि से उन हीरों और मोतियों का क्या मूल्य है ? जिसे अन्न का थैला मिला, वह बाग-बाग हो जाता है कि न जाने किस जन्म का पुण्य आज काम दे गया है । ४ देखिए, उत्तराध्ययन सूत्र ३, १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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