SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 351
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रोजी, रोटी और अहिंसा 'अहिंसा' आत्मा की खुराक है, तो 'रोटी' शरीर की । जब आत्मा और शरीर साथ-साथ रहते हैं, तो अहिंसा और रोटी भी साथ-साथ क्यों नहीं रह सकती है ? यदि ये दोनों साथ-साथ न रह सकें, तो इसका अर्थ यह हुआ कि या तो हमें आत्मा की खुराक से वंचित रहना चाहिए, अथवा शरीर को खुराक देना छोड़ देना चाहिए । इन दोनों में कौन-सा श्रेयस्कर है ? यदि कोई शरीर को ही खिला-पिला कर पुष्ट करना चाहता है, और आत्मा को मरने देना चाहता है तो फिर जीवन का, और खासकर इन्सान के जीवन का कुछ अर्थ ही नहीं रह जाता। मनुष्य और पशु के जीवन में फिर अन्तर ही क्या रह जाता है ? और यदि कोई आत्मा को खुराक देना चाहता है और अहिंसा की साधना करना चाहता है तो उसे रोटी से वंचित होना पड़ेगा; और रोटी से वंचित होने का अर्थ है---जीवन से और प्राणों से वंचित होना । यदि वह जीवन से वंचित होना चाहता है तो फिर अहिंसा की आराधना कौन से साधन के द्वारा करेगा ? अहिंसा और रोटी अब दूसरा विकल्प उपस्थित होता है कि आत्मा और शरीर जैसे साथ-साथ रहते हैं ; क्या उसी प्रकार अहिंसा और रोटी साथ-साथ नहीं रह सकती ? जहाँ तक साधुवर्ग का सम्बन्ध है, उसके सामने कोई समस्या खड़ी नहीं होती; क्योंकि उसे गृहस्थों के घर से सीधा भोजन भिक्षा के द्वारा प्राप्त हो जाता है । परन्तु गृहस्थों के लिए यह बात सुगम नहीं है । वे भिक्षा मांग कर अपना निर्वाह नहीं कर सकते । यदि सभी गृहस्थ मिक्षाजीवी बन जाएँ, तो उन्हें भिक्षा मिलेगी भी कहाँ से ? अतएव रोटी के लिए उन्हें आजीविका-स्वरूप कोई न कोई धन्धा करना ही पड़ता है। किन्तु गृहस्थ का आजीविका-पूरक धन्धा अहिंसा के विरुद्ध न हो, ऐसा कोई उपयुक्त साधन खोज निकालना आवश्यक है। जीवन की वर्तमान भूमिका में रोटी चाहिए या नहीं ? यह प्रश्न अधिक महत्त्व नहीं रखता। रोटी चाहिए, यह तो निश्चित है । किन्तु रोटी कैसी चाहिए ? किस रूप में चाहिए ? और वह कहाँ से आनी चाहिए? ये ही प्रश्न महत्त्वपूर्ण हैं। रोटी के साथ महारम्भ-स्वरूप महा-हिंसा आई है, या सद्गृहस्थ के अनुकूल अल्पारंभ-स्वरूप अल्प-हिसा आई है ? वह मर्यादित सात्विक प्रयत्न से आई है या बहुत बड़े अत्याचार और अन्याय से आई है ? रोटी तो छीना-झपटी, लूटमार और डाका डाल कर भी आ सकती है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy