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________________ ३२८ अहिंसा-दर्शन विवेकपूर्वक, सत्य के प्रति दृढ़ आस्था रख कर, चिंतन-मनन किया जाए और उसके बाद किसी बात को स्वीकार या अस्वीकार किया जाए। जैन-धर्म मनुष्य के विचारों को बलात् धक्का देने के लिए, या कुचल देने के लिए नहीं है । वह तो व्यक्ति के विचारों को सत्य-मार्ग की ओर मोड़ देने के लिए है। जो विचार प्रवाह आज गलत दिशा में बह रहा है, उसे चिंतन और मनन के द्वारा सही दिशा की ओर घुमा देना ही, जैन-धर्म का काम है। विचारों को सही मोड़ देने के लिए प्रायः संघर्ष करना पड़ता है। इसीलिए जब कभी विचार-संघर्ष होता है तो वह आनन्द का विषय बन जाता है । विचार-वीणा के तार सत्य का वादन करने के लिए स्वतः झनकार उठते हैं। जो 'व्याख्यान', सुनने के बाद वायु में विलीन हो जाए और जिस प्रवचन से विचारों में नई हलचल और कम्पन पैदा न हो, वह किस काम का ? कुछ हलचल अवश्य होनी चाहिए, कुछ उथल-पुथल होनी ही चाहिए, कुछ विचार संघर्ष भी होना चाहिए। तभी तो मानस-तल में बद्धमूल भ्रांत संस्कारों की जड़ हिलती है, तभी वे ढीले पड़ते हैं और अन्त में उखड़ कर नष्ट भी हो सकते हैं । किन्तु वह हलचल, उथल-पुथल और संघर्ष विचारों तक ही सीमित रहना चाहिए। उसमें प्रतिपक्ष के प्रति द्वेष अणुमात्र भी न होना चाहिए । विचार संघर्ष ने यदि झगड़े का रूप धारण कर लेता है तो परिणाम अशुभ एवं अवांछनीय होता है। सत्य की उपलब्धि करना ही जिसका लक्ष्य है और जो सत्य के लिए समर्पित है, वह झगड़े की स्थिति उत्पन्न नहीं होने देता। वह जानता है कि विचारों के संघर्ष से ही सत्य का मक्खन प्राप्त हो सकता है। परन्तु उस संघर्ष ने यदि द्वेषपूर्ण प्रतिद्वन्द्व का रूप ग्रहण कर लिया तो मक्खन के बदले विष ही हाथ लगेगा। अतएव सत्य का अन्वेषक जब विचार-संघर्ष का आरम्भ करता है, तब भी प्रसन्नमुद्रा में रहता है और जब संघर्ष का अन्त करता है, तब भी उससे द्विगुणित प्रसन्नमुद्रा में दिखाई देता है । निर्दोष विचार-संघर्ष का यही स्वच्छ स्वरूप है । नये-नये प्रश्न कोई व्यक्ति इसी मार्ग पर चलता है तो निस्संदेह सत्य की उपलब्धि होगी। वास्तव में बुद्धि पूर्व धारणाओं में आबक होने के कारण सीमित हो जाती है । इसलिए किसी विषय पर विचार करते-करते वह थक जाती है और ऐसा लगने लगता है कि बस, विचार हो चुका। किंतु विचारों का मार्ग तो असीम है । नित्य नये-नये प्रश्न सामने आते हैं और उन पर विचार करना आवश्यक है। विचारों की उलझन बड़ी जटिल है। विचार जब उलझ जाते हैं तो उन्हें सुलझाने में वर्षों लग जाते हैं। कभी-कभी सदियाँ गुजर जाती हैं । आखिर एक दिन वे सुलझ ही जाते हैं, किंतु वे विवेक एवं विचार के द्वारा सुलझते हैं। चाहे समय कितना ही लगे, हमें उनको सुलझाने का ही ध्येय सामने रखना चाहिए और धैर्य के साथ शान्त मन से सुलझाने का प्रयत्न करते रहना चाहिए । सम्भव है, कहीं प्रस्तुत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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