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मानव-जीवन और कृषि-उद्योग
जिस प्रकार लाठी अंधे का अवलम्बन है, उसी प्रकार धर्मशास्त्र हमारा अवलम्बन है । अतएव हम जो कुछ भी कहें ओर समझें, वह शास्त्र के आधार पर और शास्त्र की मर्यादा के अन्तर्गत ही होना चाहिए । जहाँ शास्त्र स्वयं किसी स्पष्ट मार्ग का निर्देश न करता हो, वहाँ उसके प्रकाश में अपने विशुद्ध विवेक का, अपनी नैसर्गिक बुद्धि का उपयोग किया जाना चाहिए । परन्तु इस उपयोग में हमारी विचार-परम्परा शास्त्रों से सर्वथा अलग न होने पाए। व्यक्तिगत विचारों का शास्त्रों के समक्ष कोई मूल्य नहीं है । अतएव शास्त्र हमें जो प्रकाश दे रहे हैं, उसी प्रकाश में हमें देखना है कि जीवन-व्यवहार में कहाँ महा-हिंसा है और कहाँ अल्प-हिंसा है ? हमारी कौन-सी प्रवृत्ति महारंभ में परिगणित होने योग्य है और कौन-सी प्रवृत्ति अल्पारंभ में गिनी जा सकती है ?
शास्त्रों में महारम्भ को नरक का द्वार बतलाया है। अस्तु, श्रावक को यह सोचना पड़ेगा कि जो कार्य मैं कर रहा हूँ, क्या वह महारंभ है, शास्त्रों की मान्यता में नरक का द्वार है, अथवा अल्पारम्भ है और नरक से अलग करने वाला है ? हिंसा अनिवार्य
जीवन में हिंसा तो अनिवार्य है। उससे पूरी तरह बचा नहीं जा सकता। यदि इस सत्य को कोई अस्वीकार करता है तो उसका कोई तर्क माना नहीं जा सकता। जीवन-संघर्ष में खेती आदि जो व्यापार चल रहे हैं उनमें हिंसा नहीं है, ऐसा कहने वाले की बात ज्ञान-शून्यता का प्रमाण है। जब शास्त्र जीवन-व्ववहार में हिंसा के अस्तित्त्व को स्वीकार करता है तो एक व्यक्ति का यह कथन कि-"जीवन-व्यवहार हिंसा से शून्य है," क्या महत्त्व रखता है ? ऐसी स्थिति में केवल यही देखना चाहिए कि उस कार्य में हिंसा और अहिंसा का कितना अंश है ? और क्या वह कार्य महारम्भ है, नरक का कारण है, अथवा अल्पारम्भ है, स्वर्ग की सीढ़ी है ? सत्य की उपलब्धि
विचारों में भेद होना स्वाभाविक है । परन्तु जब विचार का आधार शास्त्र है और शास्त्र भी एक ही हैं और किसी ओर से दुराग्रह भी नहीं है, तो यह भी आशा रखनी चाहिए कि एक दिन प्रस्तुत विचार-भेद भी समाप्त हो कर रहेगा । परन्तु जब तक विचार-भेद समाप्त नहीं हो जाता, तब तक प्रत्येक विचारक को समभाव से, सहिष्णुतापूर्वक चिन्तन-मनन करते रहना चाहिए। विचार-विभिन्नता को अधिक महत्त्व देने से झगड़ने की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, जिससे सत्य को उपलब्ध करने का मार्ग रुक जाता है । किसी ने यदि कोई बात कही और वह बिना सोचे-समझे ही मान ली गई तो उसका भी कोई महत्त्व नहीं है। जो बात विचारपूर्वक और चिन्तनपूर्वक स्वीकार की गई है, या इन्कार की गई है, वही महत्त्व रखती है । परन्तु आग्रह के रूप में स्वीकार या अस्वीकार करने में कोई कीमत नहीं है। वास्तविक तथ्य तो यह है कि
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