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________________ ३२६ अहिंसा-दर्शन करना ही चाहिए । जब तक हम ऐसा नहीं करेंगे, तब तक जैन-धर्म को न तो स्वयं ही सही रूप में समझ सकेंगे, और न दूसरों को ही समझा सकेंगे। एक प्रश्न जीवन-निर्वाह के लिए व्यवसाय के रूप में मनुष्य जब प्रश्न करता है तो वह चाहे जितनी यातना करे, फिर भी हिंसा तो होती है । हिंसा केवल इसीलिए अहिंसा नहीं बन जाती कि वह जीवन के लिए अनिवार्य है, गृहस्थ श्रावक के लिए हिंसा अहिंसा की एक मर्यादा है । यहाँ हमें यही देखना है कि कौन-सी हिंसा अपरिहार्य है ? कौनसी हिंसा श्रावक की मर्यादा में है और कौन-सी हिंसा ऐसी है, जो श्रावक को अनिवार्य रूप से त्याग देना ही सर्वथा वांछनीय है ? श्रावक की भूमिका ___ आखिर जीवन में यह विचार करना आवश्यक है कि कौन-सी मर्यादा का पालन करते हुए श्रावक, श्रावक की भूमिका में रह सकता है ? यदि वह जीवन-व्यापार चला रहा है, तो उसे ध्यान रखना चाहिए कि उसमें कहाँ तक न्याय और मर्यादा रहती है, कहाँ तक औचित्य की रक्षा हो रही है ? पन्द्रह कर्मदान संकल्पजा हिंसा में ही नहीं, औद्योगिक हिंसा में ही है, परन्तु जो औद्योगिक हिंसा, मानव को संकल्पजा हिंसा की ओर प्रेरित करती हो, वह कहाँ तक मर्यादानुकूल है ? वह श्रावक की भूमिका में यथावसर करने योग्य है या नहीं? इस प्रश्न पर विचार करना अतीव आवश्यक है। शास्त्रकारों ने इस विषय पर गहरा चिन्तन और मनन किया है । तीर्थंकरों तथा आचार्यों ने जनता की मर्यादा को ध्यान में रख कर जो प्रवचन किया है, वह आज भी समाज के लिए पथ-प्रदर्शक के रूप में प्रकाश-स्तम्भ है । सच बात तो यह है कि हम आज के प्रगतिवादी युग वैज्ञानिक युग में भी अंधे जैसे हैं । अंधा जब चलता है तो कहीं भी ठोकर खा कर गिर सकता है । गड्ढे में गिर सकता है, पानी में डूब सकता है और दीवार से भी टकरा सकता है, किन्तु यदि उसके हाथ में लाठी दे दी जाती है तो समझना चाहिए कि यह बहुत बड़ा पुण्य और परोपकार का काम हुआ । उस लाठी के सहारे वह मार्ग को टटोल कर चलता है और उसे गड्ढे का, दीवार का और पानी का पता सहज ही लग जाता है । जब दीवार आएगी तो पहले लाठी टकराएगी और वह बच जाएगा। अवलम्बन इस प्रकार जो वात अंधे के विषय में सोची जाती है, वही बात अन्य लोगों के । विषय में भी है । वस्तुतः धर्मशास्त्र अन्य लोगों की लाठी है । जैसे अंधा सीधा नहीं देख सकता और लाठी के द्वारा ही वह देख सकता है, उसी प्रकार अन्य लोग भी केवल अपनी बुद्धि से सीधे नहीं देख सकते, शास्त्रों से सदुपदेश द्वारा ही अपना मार्ग देखते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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