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________________ अहिंसा : जीवन की अन्तगंगा जो बात कृष्ण ने पाण्डुपुत्र के लिए कही है, वही समस्त साधकों के लिए उपयुक्त है । इसे हल करना चाहिए। पर, हल कहाँ हो सकता है ? क्या गली के नुक्कड़ पर बैठ कर, या जंगलों में भटक कर ? नहीं, उसका हल तो जीवन के अन्दर ही मिल सकता है । शुद्धि की साधना अंदर है और मूल शुद्धि भी अंदर ही होती है । सबसे बड़ा इष्टदेव अंदर ही बैठा है । दुनियाभर के देवता कहीं पर हों, किन्तु सबसे बड़ा आत्म-देव तो अंदर ही मौजूद है। इसी इष्ट देवता की उपासना में तल्लीन हो कर, जब तक अंदर का पाप नहीं धोया जाता, तब तक बाहर के देवताओं से कुछ भी लाभ प्राप्त नहीं हो सकता। ___ सबसे बड़ी गंगा हमारे ही अंदर बह रही है। अहिंसा और सत्य की गंगा हमारी नस-नस में प्रवाहित हो रही है। अहिंसा की इस गंगा में स्नान किए बिना जीवन की पवित्रता कभी मिलने वाली नहीं। जैनधर्म, बौद्धधर्म, वैदिकधर्म या संसार के किसी और धर्म को देखा जाये, इनमें देश-काल और परिस्थितियों के प्रभाव से कुछ गलतफहमियाँ मिल सकती हैं, किन्तु अहिंसा की आवाज सभी धर्मों में एक-सी सुनाई देती है । सब का स्वर एक ही निकलता है-अहिंसा से ही कल्याण हो सकता है। इस सम्बन्ध में हमारे यहाँ कहा जाता है कि जब नदी बहती है तब तो किनारों पर, आसपास हरियाली छा जाती है, और जब वह नदी सूख जाती है तो आसपास की हरियाली भी सूख जाती है । इसी प्रकार हमारे मन, वचन और शरीर में से भी यदि अहिंसा की धारा बह रही है तो सत्य भी फला-फूला रहेगा, अस्तेय भी, ब्रह्मचर्य भी, श्रावकपन और साधुपन भी हरा-भरा रहेगा।३५ यदि अहिंसा की नदी सूख गई और उसका प्रवाह बन्द हो गया तो---सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि सभी धर्म सूख जायेंगे । न श्रावकपन रहेगा, न साधुपन बचेगा । यदि इन सब धर्मों को हरा-भरा और जीवन को सुन्दर एवं सौरभमय देखना है, तो अहिंसा की त्रिपथगामिनी दिव्य गंगा को मन, वचन एवं कर्म के पथ पर अविश्रान्त गति से बहने दिया जाए। ३५ दयानदी-महातीरे सर्वे धर्मास्तृणांकुराः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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