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________________ अहिंसा-दर्शन मोक्ष भी मानव के अन्तर में है कोई-कोई अजैन विद्वान परिहास करते हैं---जैनधर्म में ४५ लाख योजन का मोक्ष माना गया है । कितना बड़ा विस्तार है ? इसमें एक ओर तो बड़ी-बड़ी दार्शनिक चर्चाएँ होती हैं तो; दूसरी ओर मोक्ष को इतना लम्बा-चौड़ा माना गया है कि जिसकी कोई हद नहीं । किन्तु कहा जा सकता है कि इतने बड़े की जरूरत भी है । मोक्ष तो इन्सान के लिए माना गया है और जहाँ इन्सान है, वहाँ मोक्ष भी है । यदि इन्सान का कदम भू-मण्डल पर ४५ लाख योजन तक, तो ऊपर मोक्ष भी ४५ लाख योजन लम्बा-चौड़ा है। मोक्ष तो इन्सान को ही मिलना है। जब इन्सान आत्मशुद्धि कर लेता है तो सीधा मोक्ष में पहुँच जाता है । उसे एक इंच भी इधर-उधर नहीं होना पड़ता । अतएव जहाँ व्यक्ति हो, वहीं बैठ जाए। जहाँ रहे, वहीं आत्म-गंगा में डुबकी लगा ले । क्योंकि वहाँ अमृत की धारा बह रही है। वह जीवन-यात्रा में संयम और साधना की ओर जितना अधिक से अधिक अग्रसर होता है, उतना ही मोक्ष के निकट होता जाता है । इस प्रकार वह मैल धो कर निर्मल हो जाता है और धुलते-धुलते जब मैल का आखिरी कण भी धुल जाता है तो वहीं पर मोक्ष भी पा लेता है यह कोई बनावट नहीं है, बल्कि सार्वभौमिक सत्य है । मोक्ष किसको मिल सकता है ? क्या ऊँट, घोड़े या राक्षस को मिल सकता है ? नहीं । वह तो केवल मनुष्य को ही मिल सकता है। अतः जहां मनुष्य है, वहीं मोक्ष भी है। आत्मशुद्धि भी अन्तर्गगा में डुबकी लगाने पर - जैनधर्म अपने आपमें इतना विराट है कि वह गंगा को अपने ही अंदर देखता है, कहीं अन्यत्र जाने को नहीं कहता । सबसे बड़ी गंगा उसके भीतर बह रही है, और वह तीन मार्गों से हो कर बहती है । अर्थात् वह मन के लोक में, वचन के लोक में और कर्म के लोक में बह रही है। परन्तु उस गंगा में तभी डुबकी लगेगी, जब कोई लगाएगा । यदि हजारों तीर्थों में स्नान कर भी आये, किन्तु अंदर की गंगा में स्नान नहीं किया तो सब बेकार है । श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा था 'आत्मा नदी है। इसमें संयम का जल भरा है। दया की तरंगें उठ रही हैं । सत्य का प्रवाह बह रहा है। इसके ब्रह्मचर्यरूपी तट बड़े मजबूत हैं। इसी में स्नान करना चाहिए । अहिंसा और सत्य की गंगा में स्नान करने से ही आत्मा की शुद्धि होती है। शरीर पर पानी डाल लेने से केवल शरीर की सफाई हो सकती है, परन्तु आत्मा कदापि स्वच्छ नहीं हो सकती ।' ३४ ३४ आत्मा नदी संयम-तोयपूर्णा । सत्यावहा शील-तटा दयोमिः ।। तत्राभिषेकं कुरु पाण्डुपुत्र ! न वारिणा शुद्धयति चान्तरात्मा ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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