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अहिंसा : जीवन की अन्तगंगा
अन्तर्जीवन की अमृतगंगा
मानव जाति के इस विराट् जीवन में न मालूम कितने राम और कितने रावण छिपे पड़े हैं ! वे कहीं बाहर से नहीं आते, बल्कि अन्दर ही पैदा होते हैं । भारतवर्ष के सन्तों ने इस सम्बन्ध में कहा है कि इस आत्मा को, जो अनादिकाल से रावण के रूप में राक्षस और पशु रहा है; यदि इन्सान बनाना है, देवता बनाना है और भगवान् बनाना है, तो अहिंसा की जो पतित-पावनी ज्ञान-गंगा बह रही है, उसमें स्नान कराओ । सब मैल पाप दूर हो जाएगा । अहिंसा की ज्ञान गंगा में कूदो । यदि अभिमान आता होगा तो स्वतः नष्ट हो जाएगा। मोह, लोभ, माया आदि जो भी विकार तुम्हें तंग कर रहे हैं ; और इनका जो मैल मन एवं मस्तिष्क पर चढ़ गया है, वह समूल नष्ट हो जाएगा । अन्तर्जीवन में जो अमृत की धारा बह रही है, यदि उसमें डुबकी लगाओगे, स्नान करोगे - तो संसारी आत्मा से महात्मा, और महात्मा से परमात्मा बन जाओगे |
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मनुष्य के भीतर प्राय: एक ऐसी मिथ्या धारणा काम करती रहती है कि वह समस्या का समाधान अन्दर तलाश नहीं करता, बल्कि बाहर खोजता फिरता है । जहाँ जख्म है, वहाँ मरहम नहीं लगाता, अन्यत्र लगाता है । यदि चोट हाथ में लगी है, और दवा पैर में लगाई गई, तो क्या असर होगा ? यदि सिर दुख रहा है, और हाथों में चन्दन लगाया, तो क्या सिर का दर्द मिट जाएगा ? रोग जहाँ हो, वहीं दवा लगानी चाहिए । यदि दाहिने हाथ में कीचड़ लगा है, तो बाएँ हाथ पर पानी डालने से वह कैसे साफ होगा ?
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अब देखना यह है कि काम, क्रोध, मद, लोभ आदि विकारों का मैल कहाँ लगता है ? यदि वह मैल कहीं शरीर पर लगता है, तब तो किसी तीर्थ में जा कर धो लिया जा सकता है और वहाँ तक भी जाने की क्या जरूरत; कहीं आस-पास के किसी तालाब या नदी में डुबकी लगा लेने से भी वह दूर हो जाएगा | जैनधर्म दृढ़तापूर्वक कहता है कि वह मैल आत्मा पर लगा हुआ होता है । अत: दुनियाभर के तीर्थों में क्यों भटका जाए ? सबसे बड़ा तीर्थ तो अपनी आत्मा ही होती है । क्योंकि उसी में अहिंसा और प्रेम की निर्मल धाराएँ बहती हैं । उसमें ही डुबकी लगा लगाने से पूर्ण शुद्धता प्राप्त होती है । जहाँ अशुद्धि है वहाँ की ही तो शुद्धि करनी है। जैनदर्शन बड़ा आध्यात्मिक दर्शन है, और वह इतना ऊँचा भी है कि मनुष्य को मनुष्यत्व के अन्दर बन्द करता है । मनुष्य की दृष्टि मनुष्य में डालता है । अपनी महानता अपने ही अंदर तलाश करने को कहता है । व्यक्ति अपना कल्याण करना चाहता है, किन्तु प्रश्न उठता है कि कल्याण करे भी तो कहाँ करे ? यहाँ पर जैनधर्म स्पष्टतः कहता है कि— जहाँ तुम हो, वहीं पर ; बाहर किसी गंगा या और किसी नदी या पहाड़ में नहीं । आत्म-कल्याण के लिए, जीवन शुद्धि के लिए या अंदर में सोए हुए भगवान् को जगाने के लिए एक इंच भी इधर-उधर जाने की जरूरत नहीं है । तू जहाँ है, वहीं जाग जा और आत्मा का कल्याण कर ले ।
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