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अहिंसा : जीवन की अन्तगंगा
वाणी तथा काया से तो बाहर में हिंसा करे, और जग में यह ढिढोरा पीटे कि मेरे तो मन में अहिंसा है ? अतएव अहिंसा - व्रती साधक के लिए यह परम आवश्यक है कि उसकी अहिंसा -- मन, वचन और शरीर के रूप में त्रिपथगामिनी हो । तभी वह अहिंसा का सच्चा आराधक माना जायेगा |
त्रिपथगामिनी : अहिंसा
कहते हैं, गंगा त्रिपथगा है— त्रिपथगामिनी है, अर्थात्, वह तीन राह से होकर बहती है | पौराणिक ग्रंथों में इसे त्रिपथगामिनी कहा गया है । पुराने टीकाकारों ने इसकी बड़ी लम्बी-चौड़ी व्याख्या की है । परन्तु ऐसा लगता है कि तीर जिस जगह लगना चाहिए था, वहाँ नहीं लगा है । वे त्रिपथगामिनी का अर्थ करते हैं कि गंगा की एक धारा पाताललोक में, दूसरी धारा मर्त्यलोक में और तीसरी धारा स्वर्गलोक में बहती है । यह विश्व तीन लोकों में विभाजित है - पाताल, ऊर्ध्व और मध्य । अस्तु, गंगा तीनों लोकों के कल्याण के लिए बहती है । बेचारे पाताललोक के निवासी यहाँ कैसे आ सकते हैं ? तो गंगा की एक धारा पौराणिक टीकाकारों ने उनके लिए वहीं भेज दी। इसी प्रकार ऊर्ध्वलोक वालों पर दया करके गंगा की एक धारा ऊर्ध्वलोक में भी पहुँचा दी गई । मध्यलोक में तो वह है ही । मगर है उसकी तीन धाराओं में से एक ही धारा ! इसीलिए उसे त्रिपथगामिनी कहा है ।
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'त्रिपथगामिनी' विशेषण की यह कैसी शोचनीय छीछालेदर की गई है ! पंडित स्थूलगंगा से चिपट गए, और बस अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ा दिए | खैर, जो भी कुछ हो; किन्तु अहिंसा की यह त्रिपथगामिनी गंगा तो वस्तुतः तीनों लोकों में बहती है । यह मानव-जीवन या इन्सानी जिन्दगी तो एक विराट् दुनिया है; एक विशाल लोक है ! उसके विषय में ऐसा कहा जाता है
" जो पिण्ड में है, वही ब्रह्माण्ड में है; और जो ब्रह्माण्ड में है, वही पिण्ड में है । जो पिण्ड में मालूम कर लिया गया है, वह ब्रह्माण्ड में मिल जायेगा | 33"
कृष्ण के जीवन चरित्र में एक अलंकार आता है । कृष्ण चरित्र के लेखक कहते हैं
कृष्ण जब बच्चे थे, तो उन्हें मिट्टी खाने की आदत थी । प्रायः बच्चे मिट्टी खा ही लिया करते हैं, और सूरदास ने कृष्ण में भी इस आदत की घोषणा की है कि कृष्ण मिट्टी खाते थे और माता उन्हें रोकती थी । एक बार कृष्ण ने देखा कि घर में मुझे कोई नहीं देख रहा है, और झट मिट्टी की डली उठा कर मुँह में डाल ली । अचानक उसी समय यशोदा आ पहुँची और मुँह पकड़ लिया कि क्या कर रहे हो ?
३३ " यत् पिण्डे, तद् ब्रह्माण्डे | यद् ब्रह्माण्डे, तत् पिण्डे ।। "
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