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________________ अहिंसा-दर्शन बात तो उसकी जीभ पर कभी आ ही नहीं सकती । जहाँ अहिंसा और करुणा की धाराएं जीवन के कण-कण में बह रही हों, वहाँ विकार का जहर आएगा कहाँ से ? वहाँ से तो अमृत की ही बूद टपकेगी। यदि कहीं जहर निकल रहा है, तो समझ लेना चाहिए कि उस स्रोत के मूल में अमृत की कमी है । ____ अहिंसा के साधक की वाणी पर दया का झरना बहता है । जब वह बोलता है तो ऐसा मालूम पड़ता है कि दुखिया के मन को वाणी द्वारा ढाढस मिल रहा है । दुखिया उसकी वाणी सुनने के बाद अपना दुःख भूल जाता है। साधक की वाणी लगी हुई चोट में मरहम का काम करती है । वह अमृत-रस से छलकती हुई वाणी संसार का कल्याण करने के लिए सदैव तैयार रहती है। वह साधक बच्चों से, बूढ़ों से, नौजवानों से, बहिनों से, घर में और घर से बाहर भी सबसे आदर और प्रेम के साथ बोलता है । साधक को यदि अमीर मिलता है तो उसी भाव से, और यदि झाडू देने वाला भंगी सम्मुख मिलता है, तो उसके साथ भी उसी समानभाव से उसकी वाणी बहती है । उस वाणी में दया और प्रेम का सोता बहता है, उससे मानो फूल झड़ते हैं । इस प्रकार अहिंसा की वह धारा शरीर से बहती है, वाणी से बहती है, और मन से बहती है। संयम के बिना अहिंसा असम्भव भगवान् महावीर ने कहा है "अपने हाथों को संयम में रखो, उन्हें अनुचित कार्य के लिए छूट मत दो। इन हाथों पर तुम्हारा पूरा नियंत्रण और पूरा अधिकार होना चाहिए । जब ये हाथ बेकाबू हो जाते हैं तो अनुचित की ओर बढ़ते हैं, और स्व-पर के विनाश में निमित्त बनने लगते हैं । इसलिए इन्हें सदा काबू में ही रखो । यदि इन्हें असंयत होने दिया तो इनमें शूल चुभेगे और व्यथा होगी, और उस व्यथा से सारे शरीर में उत्पीड़न पैदा हो जाएगा। इससे आत्म-हिंसा तो होगी ही, साथ ही दूसरे मूक जीवों को और कीड़ोंमकोड़ों को भी ये कुचल डालेंगे। वाणी को भी संयम में रखो। यदि इसे बे-लगाम होने दिया, तो यह दूसरों के कानों में शूल हुल देगी और न जाने क्या-क्या अनर्थ पैदा करेगी ! इन्द्रियों को भी संयम में रखो । यदि इन्हें निरंकुश हो जाने दिया, तो समझ लो कि जीवन नौका व्यसनों के प्रवाह में बह कर एक दिन विनाश के भँवर में जा गिरेगी, और मानव-जीवन का अनमोल महत्व धूल में मिल जाएगा । ३२ यह मन, वचन और काय की अहिंसा है। जो साधक अहिंसा का व्रत लेता है-मन, वचन और शरीर से लेता है । वही सच्चा साधक कहलाने योग्य होता है । यह नहीं हो सकता कि मन के अन्दर तो सोच रहा हो अहिंसा; और मन के बाहर वाणी से संसार में आग लगाने का दुस्साहस करे। भला यह कैसा अहिंसक होगा जो ३२ हत्थसंजए पायसंजए वायसंजए संजइंदिए। -दशवकालिक, १०, १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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