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________________ अहिंसा : जीवन की अन्तर्गगा मौन रहना चाहिए । मौन रहने से समस्या का समाधान न होता हो तो दूसरे के प्राणों की रक्षा के लिए यदि असत्य भी बोला जाए तो वह मर्यादा में है।३० तब वह असत्य भी सत्य ही है, असत्य नहीं। क्योंकि उससे अहिंसा की रक्षा होती है । जिस सत्य से व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का हित न हो, वह सत्य भी असत्य ही है। आज सत्य के नाम पर कैसे-कैसे नाटक रचे जाते हैं, और क्या कुछ किया जाता है, यह सब कुछ होते हुए भी कुछ व्यक्ति अपने को सत्यवादी मान बैठते हैं। पर क्या कभी विचार किया कि ओघसंज्ञा से सत्य बोलना एक अलग बात है, और सत्य को ठीक तरह समझ-परख कर उसे जीवन में उतारना, एक अलग बात है। जब तक मन, वाणी और कर्म में सत्य की त्रिपथगा अवतरित न हो, तब तक जीवन पवित्र और पावन नहीं बन सकता । भगवान् महावीर ने तो स्पष्ट ही कहा था कि-विचार के सत्य को वाणी में उतरने दो और वाणी के सत्य को जीवन की धरती पर उतरने दो, तभी मानवजीवन निर्दोष बन सकेगा। दयास्वरूपिणी महानदी : अहिंसा गंगा जैसी महानदी जब बहती है और उसकी विराट् धाराएँ जब लहराती हुई चलती हैं तो उसके किनारों पर घास खड़ी हो जाती है, हरियाली लहलहाने लगती है, अनेकानेक बड़े-बड़े वृक्ष भी उग आते हैं, और यदि निरन्तर पोषण मिले तो ऊँचे-ऊँचे वृक्ष तो क्या, सघन वन भी खड़े हो जाते हैं। पर ऐसा कब और कैसे होता है ? जब पानी की धारा वहाँ तक पहुँचती है । नदी के पानी की धारा प्रत्यक्ष में उन्हें सींचती तो नजर नहीं आती, किन्तु उसके जलकण अन्दर ही अन्दर सब को तरी पहुँचाते हैं, वृक्षों को हरा-भरा करते हैं, पोषण देते हैं और वे वृक्ष विस्तार पाते हैं । यदि नदी सूख जाएगी तो हरियाली कब तक ठहरेगी ? वह भी सूख जाएगी और समाप्त हो जाएगी। निसर्ग का वह सुन्दर और मनोरम विशाल-वैभव नष्ट हो जाएगा, स्थिर नहीं रह सकेगा। इसी प्रकार दया की महानदी भी यदि हमारे अन्तःकरण में बहती रहेगी, वचन में और काय में भी उसका संचार होता रहेगा, तो दूसरे व्रत भी अपने आप पनप उठेंगे ।१ अहिंसा एवं दया के साधक का मन शुद्ध भावना से परिपूर्ण हो कर प्रत्येक प्राणी के लिए करुणा का भंडार बन जाता है। अपनी ओर से किसी को कष्ट देना तो दर-किनार रहा ; दूसरे की ओर से भी यदि किसी पर कष्ट होता हुआ देखता है, तब भी उसका हृदय करुणा से छलछलाने लगता है। मुंह से कुछ भी बोलता है तो अमृत छिड़क देता है । क्या मजाल कि कमी मुह से गाली निकल जाए ? कड़वी ३० आचारांग, द्वितीय श्रु तस्कन्ध ३१ दयानदी-महातीरे, सर्वे धर्मास्तृणाकुराः । तस्यां शोषमुपेतायां, कियन्नन्दन्ति ते चिरम् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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