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आर्य-कर्म और अनार्य-कर्म
जैन-धर्म की अहिंसा इतनी विराट है कि ज्यों-ज्यों उस पर विचार करते हैं, वह अधिकाधिक गम्भीर होती जाती है। जैन-धर्म ने सूक्ष्म अहिंसा के सम्बन्ध में जितना विचार किया है, उतना ही विचार स्थूल अहिंसा के सम्बन्ध में भी किया है । यह बात नहीं है कि वह निष्क्रिय हो कर पड़े रहने की सलाह दे और जब कर्त्तव्य की बात सामने आए, जीवन-व्यवहार में अहिंसा को उतारने का प्रसंग चले, तो मौन हो जाए। यदि ऐसा होता तो जैन-धर्म आज दुनिया के सामने एक क्षण भी खड़ा नहीं रह सकता था । वह बालू की दीवार के समान दूसरे धर्मों और मतों के मामूली झोंकों से ही ढह जाता। परन्तु वह ऐसा निष्प्राण और निराधार नहीं है। वह, क्या गृहस्थ और क्या साधु; सभी के कर्तव्यों का स्पष्टरूप से निर्देश करता है। दुर्भाग्य से कुछ लोगों ने जैन-धर्म के वास्तविक या मौलिक स्वरूप को भुला दिया है, फलतः कुछ ने तो स्पष्ट 'हाँ' या 'ना' न कह कर एकमात्र मौन मृत्यु की ही राह पकड़ ली है । पर, इस तरह बच-बच कर बात करने से कब तक काम चल सकता है ? यदि कोई गृहस्थ विद्यालय अथवा औषधालय आदि खोलता है, तो वह अपने इस कार्य के सम्बन्ध में कुछ स्पष्ट निर्णय तो चाहेगा ही कि वह जो कार्य कर रहा है, वह धर्म है या पाप है ? गोलमोल भाषा में कहा जा सकता है कि विद्यालय या औषधालय खोलना-खुलवाना अच्छा है । पर, सोचना तो यह है कि वह केवल लोकभाषा में अच्छा है, या धार्मिक दृष्टि से भी अच्छा है ? किसी स्पष्ट निर्णय पर, तो आना ही पड़ेगा। केवल लोक-धर्म, राष्ट्र-धर्म या गृहस्थ-धर्म कहने से काम नहीं चल सकता। समय की गति
कोरे मौन धारण करने से भी काम नहीं चल सकता; क्योंकि समय प्रगतिपथ पर तीव्र गति से अग्रसर हो रहा है । जो व्यक्ति, समाज, अथवा राष्ट्र व्यापक दृष्टिकोण से समय की गति को देख लेता है और अपने विकास-साधककर्मों को समय के अनुकूल बना लेता है, समय उसी का समर्थन करता है। कोई कुछ पूछे और उत्तरदाता मौन हो रहे, तो इसका अर्थ यही समझा जाएगा कि कहीं कोई गड़बड़ी है, दाल में काला है और अपने आप में ही कहीं न कहीं दुर्बलता है। धर्म और दर्शन का अन्तर्मम खुल कर बाहर आना चाहता है । मला, कब तक कोई उसे दबाएछिपाए रख सकता है !
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