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________________ शोषण : सामाजिक हिंसा का स्रोत २७५ इसी के साथ समाज की दूसरी तस्वीर भी उनके समक्ष थी, जो किसी भी सहृदय के करुण हृदय को द्रवित किए बिना नहीं रह सकती थी। लाखों व्यक्ति दरिद्रता के मारे दाने-दाने को तरस रहे हैं ; श्रम करके भी समय पर अपना पेट नहीं भर सकते , एक वर्ग उस पर स्वामित्व का दावा करता है, पर वह उससे लेता बहुत ज्यादा है-और देता बहुत कम । इस कारण निम्नवर्ग के भीतर ही भीतर असंतोष और क्षोभ की आग सुलग रही है। कुछ उच्च वर्ग से बदला लेने के लिए चोर या डाकुओं के दल में जा मिलते हैं, कुछ हत्यारे बन जाते हैं और कुछ साहसहीन दरिद्र दर-दर पर भीख मांगते फिरते हैं । मातृ-जाति भी इस अमाव की ठोकरों से नहीं बच पा रही है । कुछ असन्तुष्ट और समाज की अवमानना से प्रताड़ित सुन्दरियाँ वेश्या-वृत्ति करने को विवश हो जाती हैं। कुछ गुप्त दुराचार और पापाचार की शिकार बन जाती हैं, और कुछ पशुओं की भाँति बाजार में बिक कर दासी बन जाति हैं-अपनी भावी सन्तान-परम्परा तक के लिए। समाज की विषमता का यह करुण-चित्र महावीर के अन्तस्तल को आन्दोलित कर उठा । जब तक समाज स्वस्थ नहीं हो सकता, तब तक उच्च अध्यात्म का पौष्टिक भोजन उसके लिए नित्य उपयोगी नहीं हो सकता। स्वस्थ समाज ही उच्च आदर्शों को ग्रहण कर सकता है, उन्हें पचा सकता है। सामाजिक पवित्रता के लिए महावीर ने अहिंसा का सिद्धान्त प्रस्तुत किया । और मनुष्यों की, विशेषत: श्रमणोपासक गृहस्थों की अपने व्यापार, धन्धे या कर्म में विषमता एवं शोषण बढ़ाने वाली वृत्ति को हिंसा (संकल्पी हिंसा) बताया है, जिसे वर्तमान युग की भाषा में सामाजिक हिंसा कही जा सकती है। ___अभिप्राय यह है कि जहां ईर्ष्या है, द्वेष है, घृणा है, मिथ्या अहंकार है और मनुष्य के प्रति अपमान की हीन भावना है, वहाँ हिंसा है। जब हम हिंसा के स्वरूप पर विचार करें तो इस भयानक हिंसा को न भूल जाएं, और जब अहिंसा की साधना के लिए तैयार हों, तो पहले इस आन्तरिक हिंसा को दूर करें, चित्त को पूर्णतः निर्मल बनाएँ, कम से कम समग्र मानव-जाति को प्रेम एवं मित्रता की उच्च भावना से देखें और तब क्रमशः आगे बढ़ते-बढ़ते अहिंसा के वरिष्ठ आराधक बनें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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