SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अहिंसा-दर्शन क्या स्थिति होगी ? मैं तुम्हारी वर्तमान स्थिति से अनभिज्ञ नहीं हूँ । मैं अब एक पाई भी नहीं ले सकता ।” २७४ यह कहकर रायचन्दभाई ने जब कागज का आखिरी पुर्जा भी फाड़ डाला तो वह व्यापारी उनके चरणों में गिर पड़ा और सजल नेत्रों से उसने कहा - 'आप मानव नहीं, मानवता की साक्षात् प्रतिमा हैं ! मनुष्य नहीं, देवता हैं !! ' इस प्रकार समय पर लेना और देना भी होता है, किन्तु कभी-कभी परिस्थितिविशेष के उग्ररूप धारण करने पर रायचन्दभाई की तरह आपके हृदय में दया और करुणा की लहर पैदा होनी ही चाहिए। इस मानवीय उदारता के द्वारा यदि आप किसी भी गिरते हुए भाई को समय पर बचा लेते हैं तो इस रूप में समाज का अनैतिक शोषण बन्द हो सकता है । परन्तु ऐसा होता कहाँ है ? हम तो यही समझते हैं और प्रतिदिन के व्यवहार में देखते भी हैं कि हिंसा और अहिंसा की मीमांसा आज के मानवसमाज के लिए एक प्रकार से मनोरंजन की बातें हैं । ऐसी अशोभनीय बातों से जैनधर्म उच्चता के अभीष्ट शिखर पर कदापि नहीं पहुँच सकता ; अपितु वर्तमान स्तर से शनैः शनैः नीचे खिसक कर एक दिन हृदय - हीनता की निम्नतर पृष्ठ भूमि पर चला जाएगा । वस्तुत: अहिंसा का सच्चा साधक वही है, जो अपने जीवन-व्यापार के प्रत्येक क्षेत्र में हर प्रकार की हिंसा से बचने का प्रयत्न करता है । क्या मकान और क्या दूकान; सभी उसके लिए धर्म-स्थान होते हैं । उसके जीवन व्यापार में और प्रत्येक दशा में, एक प्रकार की सुसंगति रहनी चाहिए । सामाजिक विषमता निवारण के लिए अहिंसा का सिद्धान्त शक्ति की क्रूरता को जब अहिंसा की मधुरता से परिष्कृत करने का उपक्रम चला तो तुरन्त एक समस्या उठी कि जब तक व्यक्ति की अनियन्त्रित अर्थ लालसा और भोगेच्छा पर नियन्त्रण नहीं होगा, तब तक अहिंसा का समुचित विकास नहीं हो सकता । तीर्थंकर महावीर ने ज्ञानालोक में देखा कि एक राज्य दूसरे राज्य पर आक्र मण क्यों कर रहा है ? जनता को उत्पीड़ित करना उसका ध्येय नहीं है, किन्तु अपने अधिकार का विस्तार, अहं का पोषण और उद्दाम राज्यलिप्सा की परितृप्ति ही इन आक्रमणों का मूल प्रेरणास्रोत है । एक व्यक्ति अपनी भोगेच्छा की तृप्ति के लिए सैकड़ों सुन्दरियों को अन्तःपुर में बन्द करके उनके साथ मनोरंजन करता । हजारों क्रीत दास-दासियों पर मनचाहा हुक्म चलाता है। एक-एक श्रीमन्त श्रेष्ठी के पास हजारों हलों की भूमि है, सैकड़ों पशु हैं, सैकड़ों ही कर-बद्ध नगर- जन उसकी सेवा में खड़े हैं और असंख्य स्वर्ण मुद्राएँ व्यापार में बाहर फैली हुई हैं, तो कहीं भूमि- गृह के गुप्त भंडारों में छिपी पड़ी है । भोगेच्छा और अर्थ - लालसा से समाज का वातावरण अशांत और क्षुब्ध हो रहा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy