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आर्य-कर्म और अनार्य-कर्म
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इन सब उलझनों के कारण राजस्थान के एक पंथ ने तो स्पष्ट रूप से 'ना' कहना शुरू कर दिया है। उसका कथन है- 'इन सांसारिक बातों से हमें क्या प्रयोजन ? हमसे तो आत्मा की ही बात पूछो ।
ऐसा पूछा जा सकता है कि केवल आत्मा की ही बात करने वाले व्यक्ति भोजन क्यों करते हैं ? औषधालयों में जा जा कर दवाइयाँ क्यों लाते हैं ? चलतेफिरते क्यों हैं ? ये सब तो आत्मा की बातें नहीं हैं ! केवल आत्मा-सम्बन्धी बातें करने वालों को संसार से कोई सम्बन्ध ही नहीं रखना चाहिए। वे शहरों में क्यों रहते हैं ? जंगल की हवा क्यों नहीं खाते ? लम्बे-लम्बे भाषण झाड़ कर श्रोताओं का मनोरंजन करने की उन्हें क्या आवश्यकता है ?
उदरपूर्ति के लिए उद्योग का निर्वाचन
सच तो यह है कि चाहे कोई साधु हो या गृहस्थ, उदरदेव की पूर्ति तो सभी को करनी पड़ती है । ऐसा कभी नहीं हो सकता कि 'करेमि भंते' का पाठ बोलते ही; अर्थात् - साधु-दीक्षा लेते ही कोई आजीवन अनशन कर दे, देहोत्सर्ग कर दे ।
यदि गृहस्थ अपनी उदर-पूर्ति करेगा तो वह उद्योग-धन्धा तो निश्चय ही करेगा । वह या तो खेती करेगा या कोई और व्यापार करेगा । भिक्षापात्र ले कर तो वह अपना जीवन निर्वाह कर नहीं सकता ! साधु-जीवन में भी आखिर भिक्षा - रूपी उद्योग करना ही पड़ता है । इस दृष्टि से साधु का जीवन भी एक प्रकार से उद्योग पर ही आश्रित है। अपनी भूमिका के अनुरूप प्रयत्न तो वहाँ भी करना पड़ता है । इस प्रकार गृहस्थ और साधु दोनों ही अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार प्रवृत्ति करते हैं । जैन धर्म यदि साधुओं को भोजन बनाने का आदेश नहीं देता तो दूसरी ओर साधारण गृहस्थ को भिक्षा माँग कर निर्वाह करने का विधान भी नहीं करता । क्या जैन-धर्म कभी किसी गृहस्थ से यह कहता है कि भीख मांग कर सीधी रोटी खाना धर्म है और कर्त्तव्य- समर में जूझ कर रोटी खाना अधर्म है ? नहीं, जैन-धर्म ऐसा कभी नहीं कहता । परन्तु हमारे अनेक व्यक्तियों ने भ्रान्तिवश यह समझ लिया है कि भिक्षा माँग कर खाना 'धर्म' है; और कर्त्तव्य करके जीवन-निर्वाह करना 'पाप' है ! परन्तु जो रोटी न्याय-नीतिपूर्वक पुरुषार्थ से और उत्पादन से प्राप्त की जाती है, क्या वह पाप की रोटी है ?
गलतफहमी
जो लोग ऐसी रोटी को पाप की रोटी बतलाते हैं, उनके सम्बन्ध में साहसपूर्वक ऐसा कहा जा सकता है कि उन्होंने जैन शास्त्रों का अन्तस्तत्व छुआ तक नहीं है । वे गलतफहमी और संकुचित विचार शृंखला में उलझे पड़े हैं। उनका कहना है कि गृहस्थ तो प्रवृत्ति में पड़ा हुआ है, इसलिए उसकी कमाई हुई रोटी पाप की रोटी है, और यदि वह भिक्षा माँग कर सीधा खाता है तो प्रासुक होने से वह धर्म की रोटी है । परन्तु जैन-धर्म के आचार्यों ने हाथ पर हाथ घर कर निष्क्रिय बैठे रहने
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