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________________ पवित्रता से सामाजिक अहिंसा की प्रतिष्ठा २५७ संसार में परब्रह्म ही सत्य है और उसमें कोई अनेकरूपता नहीं है। अलग-अलग जातियों की जो धारणा है, वह मोक्ष का मार्ग नहीं; यह तो आसुरी मार्ग है । "५ वेदान्त के आचार्यों ने इतनी बड़ी बात कह दी है, फिर भी पुरानी वृत्तियाँ अभी तक मर नहीं रही | आचार्य आनन्दगिरि ने बतलाया है कि आचार्य शंकर एक बार बनारस में थे और गंगा में स्नान करके लौट रहे थे। रास्ते में एक चाण्डाल, अपने कुत्तों को साथ लिए, मिल गया। रास्ता संकरा था, उसी पर वह सामने की ओर से चला आ रहा था । आचार्य शंकर पवित्रता के चक्र में पड़ गए। मुझ पर कहीं चाण्डाल की छाया न पड़ जाए, इस विचार से वे खड़े हो गए। पर, आचार्य के मनोभाव का अध्ययन कर चाण्डाल भी खड़ा हो गया । आचार्य ने कुछ देर इन्तजार किया, किन्तु जब चाण्डाल मार्ग से अलग नहीं हुआ तो विवश हो कर आचार्य ने कहा - "अरे हट जा, रास्ता छोड़ दे ! तुझे दीखता नहीं कि मैं स्नान करके आया हूँ, पवित्र हो कर आया हूँ और तू रास्ता रोक कर खड़ा हो गया है ।' चाण्डाल ने कहा- "महाराज, एक बात पूछना चाहता हूँ । आप हटने को कहते हैं, पर मैं हदूं कैसे? मेरे पास दो पदार्थ हैं - एक आत्मा और दूसरा शरीर । आत्मा चेतन है, और शरीर जड़ है । तब इनमें से आप किसे हटाने को कहते हैं ? ६ यदि आत्मा को हटाने के लिए कहते हैं तो आपकी आत्मा और मेरी आत्मा - दोनों एक ही समान हैं । परब्रह्म के रूप में जो आत्म-ज्योति आपके अन्दर विराजित है, वही मेरे अन्दर भी विद्यमान है, तो फिर मैं आत्मा को कहाँ ले जाऊँ, और कैसे ले जाऊँ ? आत्मा तो व्यापक है और सम्पूर्ण संसार में समानरूप से व्याप्त है । आप उसे हटाने को कहते तो हैं, किन्तु उसे हटाने की बात मेरी कल्पना से बाहर है । ७ यदि आप शरीर को हटाने के लिए कहते हैं तो शरीर पंचभूतों से बना है और वह जैसा मेरा है, वैसा ही आपका भी है। ऐसा तो है नहीं कि मेरा माँस काला हो और आपका गोरा हो । जो रक्त आपके शरीर में बह रहा है, वही मेरे में भी बह रहा है । अत: यदि आप शरीर को अलग हटने की बात कहते हैं तो वह मेरी समझ में नहीं आती कि उसे कैसे अलग किया जाए, और क्यों अलग किया जाए ?" आचार्य आनन्दगिरि कहते हैं कि जब यह बात शंकर ने सुनी तो वे आश्चर्य में पड़ गए और उन्होंने अपने कान पकड़े ! बोले- 'अभी तक वेदान्त की ऊँची-ऊंची "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या | " नेह नानास्ति किञ्चन ॥' अन्नमयादन्नमयमथवा चैतन्यमेव चैतन्यात्, द्विजवर ! दूरीकर्तुं वाञ्छसि किं ब्रूहि गच्छ गच्छेति । - मनीषापञ्चक ७ आचार्य शंकर वेदान्तमत के अनुयायी थे । वेदान्त की मान्यता के अनुसार, समस्त जड़-चेतनमय विश्व, एक आत्म-तत्त्व का ही नानारूप से प्रसार है । वस्तुतः व्यापक आत्म-तत्त्व के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं । " ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, नेह नानास्ति किञ्चन । " ५ ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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