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अहिंसा-दर्शन
दूषित बन जाता है और सड़ जाता है । मनुष्य जिस मकान में रहता है, उसके चारों तरफ गन्दगी बिखेरता रहता है और वह गन्दगी शरीर के द्वारा ही तो फैलती है। जब मनुष्य शहर में रहता है तो वहाँ के गली-कूवों की क्या स्थिति होती है ? इतनी गन्दगी, मलिनता और अपवित्रता वहाँ भर जाती है कि एक वर्ग सफाई करते-करते थक जाता है। मनुष्य अपने आचरण से हवा, पानी, मकान आदि सभी चीजों को दूषित कर देता है और सड़ा देता है। यह सारे कर्म मनुष्य ही करता है । वह जिस ओर चलता है, गन्दगी बिखेरता चलता है ।
भगवान् महावीर ने अशुचि को अपने शरीर में ही देखा है। मनुष्य के शरीर से बढ़कर कहीं अशुचि नहीं है। अपने शरीर से चिपटी उस अशुचि को न देखकर शरीर को पवित्र मानना भूल है और सिर्फ दूसरे के शरीर को अपवित्र मान कर अपनी शारीरिक पवित्रता के मिथ्या अहंकार को प्रश्रय देना तो जीवन की एक महान भूल है।
मनुष्य का शरीर अपवित्र है और वह कभी पवित्र नहीं हो सकता। हजार बार स्नान करके भी आप उसे पवित्र नहीं बना सकते । एक आदमी कुल्ला करता है। एक बार नहीं, सौ बार कुल्ला करता है और समझ लेता है कि मेरा मुंह शुद्ध हो गया। किन्तु उसी मुंह में कुल्ला भरकर यदि वह दूसरे पर थूकता है तो लड़ाई शुरू होगी या नहीं ? ऐसी स्थिति में लाठियाँ बजने लगती हैं और कहा जाता है कि झूठा पानी मुझ पर डाल दिया । संसार की सारी अपवित्रता इस शरीर में भरी पड़ी है। जीवन की वास्तविक पवित्रता तो आपके मन में और आपकी आत्मा में ही हो सकती है, शरीर में नहीं । जीवन की शुचिता आप अपने आचार और विचार द्वारा पैदा कर सकते हैं । और जब तक यह बात नहीं आएगी, आप चाहे हजार बार गंगा में स्नान कर लें और लाख बार सम्मेतशिखरजी की यात्रा कर आएँ, वह पवित्रता आने वाली नहीं है।
स्नान से क्या होता है ? पानी का काम तो शरीर के ऊपर फैल कर ऊपरी गन्दगी को दूर कर देना है। मन की गन्दगी को दूर करना उसकी शक्ति से सर्वथा बाहर का काम है। शरीर के भीतर की गन्दगी भी उससे साफ नहीं हो सकती। ऐसी स्थिति में जैन-धर्म हमारे सामने यह प्रश्न उपस्थित करता है कि तुम आचार-विचार को महत्त्व देते हो या जात-पाँत को ? यदि जात-पाँत को महत्त्व देते हो, तब तो वह महत्त्व शरीर को ही प्राप्त होता है और शरीर सबका समान है, जैसा ब्राह्मण का है, वैसा ही शूद्र का है । यदि ब्राह्मण का शरीर पवित्र है, तो शूद्र का भी पवित्र है; और यदि शूद्र का अशुचिरूप है, तो ब्राह्मण का भी अशुचिरूप है। वेदान्त-दर्शन
भारत का वेदान्तदर्शन आत्माओं में कोई भेद नहीं करता । वह प्रत्येक शरीर में अलग-अलग आत्माएँ न मान कर, सब आत्माओं को एक इकाई के रूप में ग्रहण करता है। वह सम्पूर्ण विश्व को ब्रह्म का ही स्वरूप मानता है और कहता है--"इस
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