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________________ पवित्रता से सामाजिक अहिंसा की प्रतिष्ठा २५५ और यह पूछो कि जीवन की राह पर चल कर उसने क्या पाया है ? उसमें महक पैदा हुई है या नहीं? जीवन-फूल खिला है या नहीं? वह जीवन का फूल महक दे रहा है या नहीं ? जब तलवार म्यान में पड़ी है, तो तलवार खरीदने वाला तलवार का मोल करता है या म्यान का ? लड़ाई तलवार से होगी या म्यान से ? म्यान तो म्यान ही रहेगी, उसका अपने आप में क्या मूल्य है ? चाहे म्यान सोने की ही क्यों न हो; किन्तु यदि उसमें काठ की तलवार रखी है तो उस म्यान की क्या कीमत होगी ? कर्त्तव्य की दृष्टि से जैन-धर्म एक ही बात कहता है कि मनुष्य तेरे विचार और आचार कितने ऊँचे और अच्छे हैं; और तूने जीवन की पवित्रता पा कर उन्हें जीवन में कितना साकार किया है ? जिसके पास पवित्र विचार का वैभव है और पवित्र आचार की पूंजी है, निस्सन्देह वही भाग्यशाली है और जैन-धर्म उसी को आदरणीय स्थान देता है। जैन-धर्म जो बारह भावनाएँ आती हैं, उनमें एक अशुचि-भावना भी है । वह भावना निरन्तर चिन्तन के लिए है और वह चिन्तन अपने शरीर के सम्बन्ध में है। इस भावना में अपने शरीर के अशुचिस्वरूप का विचार किया जाता है । ब्राह्मण हो या शूद्र, सभी के लिए समानरूप से इस भावना के चिन्तन का विधान है। शास्त्र में कहीं यह नहीं बतलाया गया है कि ब्राह्मण का शरीर शुचि-पवित्र है और उसे इस भावना की कोई आवश्यकता नहीं है, और सिर्फ शूद्र के लिए ही यह भावना आवश्यक है ! मनुष्य-मात्र का शरीर एक-जैसा है । ऐसा कदापि नहीं कि शूद्र के शरीर में रक्त हो, और ब्राह्मण के शरीर में दूध भरा हो या गंगाजल हो ! यह बात तो इतनी स्पष्ट है कि इसकी सच्चाई आँखों से दिखाई देती है। इसी कारण अशुचिभावना का विधान ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र सभी के लिए समानरूप से मान्य बतलाया गया है । फिर भी लोगों के दिलों में यह मिथ्या अहंकार बैठ गया है कि मेरा शरीर पवित्र है, और दूसरे का अपवित्र है ! मैं शूद्र को छू लूगा तो मेरा शरीर अपवित्र हो जाएगा! घिनौनी से घिनौनी चीज : देह संसारभर में अपवित्र से अपवित्र और घिनौनी से घिनौनी चीज यदि कोई है, तो वह शरीर ही है । दुनियाभर की अशुचि और गन्दगी इसमें भरी पड़ी है, यह हड्डियों का ढाँचा और मांस का लोथ चमड़े से ढंका हुआ है और मल-मूत्र आदि घृणित पदार्थों का भंडार है। फिर इसमें पवित्रता कहाँ से आ गई ? यह शरीर जब कभी किसी वस्तु को ग्रहण करता है, तो उसको भी अपवित्र बना देता है। चाहे भोजन कितना ही पवित्र और स्वच्छ क्यों न हो, जैसे ही वह शरीर के सम्पर्क में आता है, गन्दा और ४ जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान । मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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