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अहिंसा-दर्शन
हैं और वह जीवन की पवित्रता प्राप्त करके महान् विभूति बन जाता है । यह सब किसकी विशेषता थी ? यह विशेषता जन्म की नहीं, अपितु कर्म की ही थी। अनुचित प्रश्न
सन्त जब मिलते हैं तो कई लोग सर्वप्रथम उनकी जाति पूछ बैठते हैं, और कोई बात पूछना उन्हें नहीं सूझता। कोई-कोई उनका खानदान और कुल भी पूछ लेते हैं । पर सोचना यह है कि क्या ये सब बातें साधु से पूछने की हैं ? साधु तो अपनी पहली दुनिया को भूल ही जाता है । उसे स्मरण करने का अधिकार भी नहीं; कि वह पहले क्या था ? किस रूप में था ? ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य क्या शूद्र क्या था ? इन सभी शृंखलाओं से मुक्त हो कर उसने नया जन्म लिया है । जब कोई मनुष्य यहाँ जन्म लेता है, तो उसे अपने पिछले जन्म की जाति, खानदान और कुल आदि का स्मरण नहीं रहता । प्रकृति उसे पूर्वजन्म की स्मृति नहीं रहने देती, मात्र वर्तमान का दृश्य ही उसके सामने खड़ा पाया जाता है। इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति दीक्षा लेता है तो वह भी एक प्रकार से नया जन्म पाता है, नए क्षेत्र में प्रवेश करता है। नई जिन्दगी पा कर वह पुरानी जिंदगी को भुला देता है । वह जिस महल को छोड़ कर आया है, यदि उसे अपने दिमाग से नहीं निकाल सका है, और जिस कुल से आया है, यदि उसे नहीं भुला सका है तो जैन-धर्म कहता है कि उसका नया जन्म नहीं हुआ है, वह साधु नहीं बन सका है । सच्चा साधु दीक्षा लेने के बाद 'द्विजन्मा' हो जाता है । पर आज तो वह उसी पुराने जन्म के संस्कारों में उलझा हुआ देखा जाता है । उन्हीं संस्कारों को अपने जीवन पर लादे हुए चलता है और जब यही प्रक्रिया चालू है तो जीवन का जो महान् आदर्श आना चाहिए, वह नहीं आ पाता।
'अप्पाणं वोसिरामि'3 कह कर साधु ने पुरानी दुनिया के खोल को तोड़ फेंका है। उसके सामने चाहे महल हो, या झोंपड़ी हो; दोनों समान हैं। कोई उसे अपमानित करता हो या कोई सम्मान देता हो, दोनों ही उसकी दृष्टि में एक समान हैं। उसके लिए मानापमान की ये सब खाइयाँ कमी की पट चुकी हैं और अब वह इन सबसे अलग हो चुका है । साधु ही एकमात्र उसकी जाति है । साधु की दूसरी कोई जाति ही नहीं होती है । किन्तु पूछने वाले वही पुरानी दुनिया की कहानी पूछते हैं और पुराने संस्कारों की याद ताजा करते हैं, जिन्हें बिल्कुल भुला देना चाहिए। सही तो यह है कि ऐसी निरर्थक बातों को सारा भारत ही भुला दे । परन्तु यह तो विवेकबुद्धि पर आश्रित है, जो अभी दूर की बात है । वर्तमान में जब साधु भी इन्हें नहीं भुला सके हैं, तो फिर दूसरे सर्वसाधारण से क्या आशा की जाए? इसकी पुष्टि में संत कबीर कहते हैं :-किसी साधु की जाति मत पूछिये कि वह ब्राह्मण है, या क्षत्रिय ? जाति पूछ कर करोगे भी क्या ? यदि पूछना ही है तो उसका ज्ञान पूछो, उसका आचरण पूछो
३ मुनि-दीक्षा लेते समय प्रतिज्ञा के रूप में बोले जाने वाले एक पाठ-विशेष का
अंश ।
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