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________________ जातिवाद : सामाजिक हिंसा का अग्रदूत २४५ कोई 'जातिसंपन्न' और 'कुलसंपन्न हो सकता है। कोई जाति ऐसी होती है, जिसका वातावरण प्रारम्भ से ही ऐसा बना रहता है कि उस जाति में उत्पन्न होने वाला व्यक्ति माँस नहीं खाता और मदिरा-पान नहीं करता। ऐसी जाति में यदि कोई प्रगति तथा विकास करना चाहता है तो वह जल्दी आगे बढ़ सकता है, क्योंकि उसे प्राथमिक तैयारी के उपयोगी साधन अपने समाज के वातावरण में ही मिल जाते हैं। फिर भी यह ध्यान रखना आवश्यक है कि ऐसे व्यक्ति का वह महत्त्व माँस न खाने और मदिरा न पीने के ही कारण है, उस जाति में जन्म लेने से नहीं । कुछ व्यक्ति ऐसे भी मिल सकते हैं, जो मांस-मदिरा का सेवन न करने वाली जाति में जन्म ले कर भी संगतिदोष से माँस-मदिरा का सेवन करने लगते हैं । उनके लिए जाति का प्रश्न कोई महत्त्व नहीं रखता है। यह समझना निरी भूल है कि केवल वातावरण के द्वारा ब्राह्मण का लड़का बिना पढ़े ही संस्कृत का ज्ञाता बन सकता है। हजारों ब्राह्मण ऐसे भी हैं जो पथ-भ्रष्ट हो कर दर-दर भटक रहे हैं और प्रथमश्रेणी के वज्र-मूर्ख हैं। उनमें शूद्र के बराबर भी संस्कृति, सदाचार और ज्ञान नहीं हैं। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि जातिगत वातावरण या संस्कार एक सीमा तक ही व्यक्ति के विकास में सहायक होते हैं, सर्वाङ्ग विकास इनसे नहीं होता। बहुतेरे ओसवाल, अग्रवाल और जन्म के जैन अनुकूल वातावरण न मिलने के कारण गाँव के गाँव दूसरे धर्मों के अनुयायी हो गए । जब हम वहाँ पहुँचे तो मालूम हुआ कि तीस-तीस वर्ष हो गए; और जैन-धर्म का कोई उपदेशक वहाँ पहुँचा ही नहीं । उन्हें जैसा वातावरण मिला, विवश हो कर वे वैसे ही बन गए। जब उनमें भी जाति के संस्कार आ रहे थे, फिर वे कहाँ भाग गए ? वास्तव में उन्हें जातीय संस्कार तो मिले थे, किन्तु अनुकूल वातावरण न मिलने के कारण वे पथ-भ्रष्ट होने के लिए विवश हुए । इसके विपरीत मनुष्य का जन्म किसी भी जाति में क्यों न हुआ हो, यदि वातावरण अनुकूल मिल जाए तो मनुष्य प्रगति कर लेता है । इस प्रकार जाति को कोई महत्त्व नहीं दिया जा सकता है; क्योंकि हड्डी, माँस और रक्त में कोई फर्क नहीं है । वह तो प्रत्येक जाति में एक समान ही होता है। जैन-धर्म के अनुसार दया, अहिंसा या कोई दूसरे पवित्र गुण हड्डियों में रहते हैं या आत्मा में ? और एक जाति में जन्म लेने वाली सभी आत्माएँ यदि एक-से सद्गुणों से सम्पन्न हैं तो उनमें विभिन्नता क्यों दिखाई देती है ? पवित्र जाति में जन्म लेने वाली सब आत्माएँ पवित्र क्यों नहीं होती ? जाति-भेद के कारण जिसे अपवित्र कहा जाता है, उस जाति में जन्म लेने वाले सभी व्यक्ति अपवित्र क्यों नहीं होते ? महात्मा हरिकेशी जाति से चाण्डाल थे ; उन्हें अपने माता-पिता से कौन-से उच्च संस्कार मिले थे ? क्या वे हड्डियों में पवित्रता ले कर जन्मे थे ? नहीं, उनके जीवन का मोड़ चिन्तन, मनन और सुन्दर वातावरण से हुआ, जन्मगत जातीय संस्कारों से नहीं । वास्तव में मनुष्य वातावरण से बनता है और वातावरण से ही बिगड़ता भी है । मनुष्य के उत्थान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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