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________________ २४४ अहिंसा - वशन नहीं, वास्तव में पक्षी हो । फिर तुमने पहले मिथ्या भाषण क्यों किया था कि मैं ब्राह्मण हूँ और अमुक वंश में मेरा जन्म हुआ है ?" अन्त में, शिष्य भलीभांति समझ जाता है कि- 'मैं ब्राह्मण हूँ' - यह विचार गलत है और जब तक जाति का अभिमान बना रहेगा, तब तक आत्मा संसार सागर से नहीं तिर सकती । जाति त-कुल का मद त्याज्य है जैनपरम्परा में भी जाति और कुल के मद को त्याज्य बतलाया गया है और जब तक इनका मद दूर नहीं होता, तब तक साधक की दृष्टि सम्यक् नहीं हो सकती । परन्तु इस तथ्य को साधारण जनता कब समझती है ? अनेकान्तवाद की मजाक कहा जा सकता है कि जैनधर्म अनेकान्तवादी धर्म है । वह जाँत-पांत को भी मोक्ष का कारण मान सकता है । पर ऐसा कहना अनेकान्त की मजाक बनाना है । क्या अनेकान्तवाद यह भी सिद्ध कर देगा कि आदमी के सिर पर सींग होते भी हैं और नहीं भी होते हैं ? यदि कोई कहे कि सींग नहीं होते तो क्या वह एकान्तवादी बताया जाएगा । कोई यह प्रश्न करे कि साधु के लिए व्यभिचार करना अच्छा है या बुरा है तो क्या यहाँ भी अनेकान्तवाद का आश्रय ले कर ऐसा कहा जा सकता है कि व्यभिचार करना अच्छा भी है और बुरा भी है ? यदि कोई साधु पैसा रखता है और कोई कहता है कि यह गलत चीज है तो क्या वहाँ भी अनेकान्तवाद का प्रदर्शन होगा ? वास्तव में अनेकान्त का सिद्धान्त सच और झूठ को एक रूप में स्वीकार कर लेना नहीं है । जिन महापुरुषों ने अनेकान्त की प्ररूपणा और प्रतिष्ठा की है, उनका आशय यह नहीं है । उन्होंने अनेकान्तवाद को भी अनेकान्तवाद कह कर इस प्रकार स्पष्ट कर दिया है कि हम 'सम्यक् अनेकान्त' को तो सहर्ष स्वीकार करते हैं, किन्तु मिथ्या 'अनेकान्त' को स्वीकार नहीं करते । इस प्रकार 'सम्यक् एकान्त' को भी स्वीकार करते हैं, किन्तु 'मिथ्या एकान्त' को अस्वीकार करते हैं । * प्रश्न हो सकता है कि यदि जैन-धर्म में जाति और कुल का अपने आप में कोई महत्त्व नहीं है, तो शास्त्र में "जाइसंपन्न " और " कुलसंपन्ने” पाठ क्यों आये हैं ? इस प्रश्न पर सूक्ष्मबुद्धि और विवेक शीलता के साथ विचार करना है । जातिकुल - सम्पन्नता : शुद्ध संस्कार व वातावरण से " जाइसंपन्ने" और " कुलसंपन्ने" का अर्थ यह है कि संस्कार और वातावरण से ४ "अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनय-साधनः । अनेकान्तः प्रमाणात् ते, तदेकान्तोऽपितान्नयात् ।। " Jain Education International For Private & Personal Use Only - आचार्य समन्तभद्र www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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