SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जातिवाद : सामाजिक हिंसा का अग्रदूत २४३ सद्बुद्धि और सदाचार भी कभी अन्याय से प्राप्त किये जा सकते हैं ? इन्हें प्राप्त करने का एक ही मार्ग है और वह है काँटों का मार्ग। जो अपने जीवन को जितनाजितना कठिन मार्ग पर बढ़ाता जाएगा वह उतना ही ऊँचा उठता जाएगा । सत्य और सदाचार की राह पर जाने वालों को शूली की सेज मिलेगी और उन्हें अपना सारा जीवन काँटों का मार्ग तय करने में ही गुजारना पड़ेगा। ____ आमतौर से जब कोई अपरिचित व्यक्ति सामने आता है तो यह प्रश्न किया जाता है-कौन हैं आप? वह शीघ्र ही उत्तर देता है-ब्राह्मण हूँ, या क्षत्रिय हूँ, या वैश्य हूँ, या अग्रवाल अथवा ओसवाल हूँ । परन्तु यह ब्राह्मणपन आदि क्या किसी की आत्मा के साथ अनादिकाल से चला आ रहा है ? क्या यह क्रम अनन्त-काल तक इसी तरह चलता जाएगा ? जब मोक्ष प्राप्त होगा, तो जाति की इन गठरियों को क्या वहाँ भी सिर पर लादे हुए लेता जाएगा ? जाति की निस्सारता यद्यपि वैदिक धर्म जाति-पाति का प्रमुख समर्थक समझा जाता है, पर वहाँ भी ऐसे उदात्त विचार प्रचुरमात्रा में मिलते हैं, जिनमें जाति या वर्ण की निस्सारता प्रकट की गई है । गुरु और शिष्य का एक छोटा-सा संवाद इस प्रकार आता है संसार-सागर से पार जाने की इच्छा रखने वाला कोई मुमुक्ष शिष्य किसी गुरु के पास जाता है । गुरु उससे पूछते हैं-'सौम्य, तुम कौन हो ? और क्या चाहते हो ?' शिष्य-'मैं ब्राह्मण का पुत्र हूँ। अमुक वंश में मेरा जन्म हुआ है । मैं संसारसागर से तिरना चाहता हूँ ।' गुरु-- 'वत्स, तुम्हारा शरीर तो यहीं भस्म हो जाएगा; फिर संसार-सागर में किस प्रकार तिरोगे? नदी के इसी किनारे पर जो भस्मीभूत हो गया हो, फिर वह तिर कर उस किनारे पर कैसे पहुँच सकता है ?' गुरु के इस प्रकार कहने पर शिष्य का ध्यान आत्मा की ओर उन्मुख हुआ । उसने कहा--'देव, मैं अलग हूँ और शरीर अलग है । मृत्यु आने पर शरीर ही भस्म होता है, मैं अर्थात्-आत्मा नहीं, क्योंकि वह तो नित्य है । वह भस्म नहीं होगा। केवल शरीर ही जन्म धारण करता है, मरता है और वह मिट्टी भी बन जाता है । शस्त्र उसे छेद सकते हैं, अग्नि उसे जला सकती है, पर आत्मा तो सनातन है । जिस प्रकार पक्षी घोंसले में रहता है, उसी प्रकार मैं (आत्मा) भी इस शरीर में रहता हूँ । जैसे पक्षी एक घोंसला छोड़कर दूसरे घोंसले में रहने लगता है, मैं भी एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में प्रवेश करता हूँ। केवल शरीर ही आते और जाते रहते हैं, किन्तु मैं (आत्मा) ज्यों का त्यों अविचल रहता हूँ।' इस प्रकार शिष्य ने जब शरीर और आत्मा का स्पष्ट भेद समझ लिया तो गुरु कहते हैं-'वत्स, तुम ठीक कहते हो । तुम शरीर नहीं, वस्तुतः आत्मा हो । तुम घोंसला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy