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________________ अहिंसा - दर्शन और पतन के लिए यदि किसी को महत्त्व दिया जा सकता है तो वह 'वातावरण' ही है । जातिगत जन्म के आधार पर पवित्रता या अपवित्रता मानना बहुत बड़ी भूल है । जैन-धर्म की परम्परा में देखा जाता है कि शूद्र भी साधु बन सकता है और वह आगे का ऊँचा से ऊँचा रास्ता तय कर सकता है । सैकड़ों शूद्रों को मोक्ष प्राप्त होने की कथाएँ आज भी मौजूद हैं । कथन का अभिप्राय यह है कि हजारों ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य साधु बन कर भी जीवन की पवित्रता कायम नहीं रख सके; फलतः वे पथ भ्रष्ट हो गए; तो फिर ' जाइसंपन्ने' होने से ही क्या लाभ हुआ ? इसके विपरीत हरिकेशी और मेतार्य जैसे शूद्र पवित्र एवं अनुकूल वातावरण में आ कर यदि जीवन की पवित्रता प्राप्त कर सके और मुक्ति के अधिकारी भी बन सके तो 'जाइसंपन्ने' न होने पर भी कौन-सी कमी उनमें रह गई ? प्रश्न होता है कि जैन धर्म किस को वन्दनीय और पूजनीय मानता है ? २४६ जाति - कुल से सम्पन्नता का रहस्य 'जा संपन्ने' और 'कुलसंपन्ने' पदों में जाति और कुल का अर्थ यह नहीं है, जिसे आजकल सर्वसाधारण लोग जाति और कुल के रूप में समझते हैं । ओसवाल या अग्रवाल आदि टुकड़े शास्त्र में जाति नहीं कहलाते । शास्त्र में जाति का अर्थ है'मातृ-पक्ष' और कुल का अर्थ है - 'पितृ पक्ष' जिस माता के यहाँ सुन्दर वातावरण होता है, उसके बालक का निर्माण सुन्दर होता है । जिस प्रकार माता के उठने-बैठने, खाने-पीने और बोलने आदि प्रत्येक कार्य का बच्चे पर अवश्य ही असर पड़ता है, इसी प्रकार कुल अर्थात् — पितृ पक्ष का वातावरण भी अच्छा होना चाहिए। जिस बालक के मातृ पक्ष और पितृ पक्ष का वातावरण ऊँचा, पवित्र और उत्तम होता है, वह बालक अनायास ही अनेक दुर्गुणों से बच कर सद्गुणी बन सकता है । हालांकि एकान्तरूप से यह नहीं कहा जा सकता कि ऐसा बालक सद्गुणी ही होगा । कई जगह अपवाद भी पाए जाते हैं । फिर भी आमतौर पर यह होता है। कि जिस बालक के माता और पिता का पक्ष सुन्दर, सदाचारमय वातावरण से युक्त होता है और जिसे दोनों तरफ से अच्छे विचार मिलते हैं, वह जल्दी प्रगति कर सकता है और वही 'जातिसम्पन्न' तथा 'कुलसम्पन्न' कहलाता है । इसके लिए ऐसा कोई सुनिश्चित नियम नहीं है कि जिसकी जाति; अर्थात्मातृ पक्ष ( अर्थात् - ननिहाल ) उत्तम वातावरण वाला है, उसका व्यक्तित्व उत्तम ही होगा; और जिसका मातृ-पक्ष गिरा हुआ होगा, उसका व्यक्तित्व भी गिरा हुआ ही होगा । किसी बालक और युवा पुरुष का व्यक्तित्व इतना प्रबल और प्रभावशाली होता है कि उस पर मातृ पक्ष और पितृ पक्ष का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता । वह स्वयं ही अच्छे या बुरे वातावरण का निर्माण कर लेता है । इस प्रकार कभी-कभी उल्टे पासे ५ " जातिर्मातृपक्ष:, कुलं पितृपक्ष: ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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