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अहिंसा-दर्शन
सब भावनाएँ भरी हैं, तो समझ लेना चाहिए कि वहाँ वास्तविक मनुष्यता नहीं आ पाई है। मानव-जाति का विभाजन
अखण्ड मानव-जाति पहले-पहल उद्योग-धन्धों की भिन्नता के कारण अनेक टुकड़ों में विभक्त हुई। कहना तो यह चाहिए कि मनुष्य जाति की सुविधा के लिए ही उद्योग अलग-अलग रूपों में बाँटे गये थे और अलग-अलग पेशा करते हुए भी मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद नहीं था। किन्तु जब अहंकार और द्वेष की भावनाएं तीव्र हुई तो धन्धों के आधार पर बने हुए विभिन्न वर्गों में ऊँच-नीच की भावना अंकुरित होने लगी। फिर वह फूली और फली। उसके जहरीले फल सर्वत्र फैले और उन्होंने मानव-जाति की महत्ता और पवित्रता को नष्ट कर दिया। मनुष्य समझ बैठे कि अमुक धन्धा करने वाला वर्ग ऊँचा है और अमुक धन्धा करने वाला वर्ग नीचा।
क्या वह भेदभाव यहीं खत्म हो गया ? नहीं, वह बढ़ता ही चला गया और एक दिन उसने बहुत विचित्र एवं विकृत रूप ग्रहण कर लिया। धीरे-धीरे धन्धों की बात उड़ गई और जन्म से ही उच्चता और नीचता, पवित्रता और अपवित्रता की बात जोड़ दी गई।
जब तक धंधे का प्रश्न था, समस्या विकट नहीं थी और भेद-भाव भी स्थायी नहीं था, क्योंकि मनुष्य इच्छा होते ही अपना धंधा बदल भी सकता था । किन्तु जन्म कैसे बदले ? परिणाम यह हुआ कि मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद करने वाली फौलादी दीवारें खड़ी कर दी गई और मानव-परिवार का संघटन छिन्न-भिन्न हो गया । निस्सन्देह उसी विघटन का यह दुःखद परिणाम है कि आज 'शान्ति' और 'प्रेम' के स्थान पर 'अशान्ति' एवं 'घृणा' का साम्राज्य है । पवित्रता जन्म से या कर्म से ?
हमारे सामने आज यह जटिल प्रश्न उपस्थित है कि इस सम्बन्ध में जैन-धर्म क्या प्रकाश देता है । वह 'जन्म' से पवित्रता मानता है या 'कर्म' से? किसी ने ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य के कुल में जन्म ले लिया तो क्या वह जन्म लेने मात्र से ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य हो गया ? और क्या जन्ममात्र से उसमें श्रेष्ठत्व आ गया ? अथवा ब्राह्मण आदि बनने के लिए और तदनुरूप उच्चता प्राप्त करने के लिए क्या कुछ कर्तव्य-विशेष भी करना आवश्यक है ?
__ इन्सान जन्म से क्या ले कर आया है ? वह हड्डी और माँस का ढेर तो ही साथ में लाया है ! क्या किसी की हड्डियों पर 'ब्राह्मणत्व' की, किसी के मांस पर 'क्षत्रियत्व' की या किसी के चेहरे पर 'वैश्यत्व' की मोहर लगी आई है ? या ब्राह्मण किसी और रूप में, और दूसरे वर्ण किसी और रूप में आए हैं ?
आखिर, शरीर तो शरीर ही है । वह जड़पुद्गलों का पिण्ड है। उसमें जाति
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