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________________ जातिवाद : सामाजिक हिंसा का अग्रदूत २३७ पाँति का किसी भी प्रकार का कोई नैसर्गिक भेद नहीं है । यह मृत्-पिण्ड तो आत्मा को रहने के लिए मिल गया है और कुछ समय के लिए आत्मा रहने के लिए उसमें आ गया है । वस्तुतः यह अपने आप में पवित्र या अपवित्र नहीं है। पवित्रता और अपवित्रता का आधार आचरण की शुद्धता या अशुद्धता है । आचरण ज्योंज्यों पवित्र होता जाता है, त्यों-त्यों शुद्धता भी बढ़ती जाती है। इसके विपरीत अपवित्रता के आचरण से अशुद्धि ही बढ़ती जाती है। यह आवाज, आज की नई आवाज नहीं है । भारत में जब जन्मगत उच्चता और नीचता की भावनाएँ घर किए बैठी थीं, तब भी विचारक लोग प्रायः यही कहते थे और तब से आज तक भी वे यही कहते आ रहे हैं । निस्सन्देह उस आचरणमूलक उच्चत्व की प्रेरणा का ही तो यह फल प्रकट हुआ है कि इन्सान ने किसी भी उच्च या नीच जाति में जन्म लिया हो, फिर भी उसने श्रेष्ठ होने और उच्चता प्राप्त करने के लिए भरसक प्रयत्न किया। उसने विचार किया कि मैं जन्म से उच्च नहीं बन गया हूँ। यदि मैं सत्प्रयत्न करूंगा, जीवन को सदाचार के पथ पर अग्रसर करूंगा, और अपनी प्राप्त सामग्री को अपने आप में ही समेट कर नहीं रखूगा; बल्कि दूसरों के कल्याण में भी उसका यथाशक्ति उपयोग करूंगा तो जीवन की पवित्रता को प्राप्त कर सकूगा। वह पवित्रता शुभ कर्म द्वारा ही प्राप्त होगी, जन्म से नहीं; यह आवाज भारत की जनता के हृदय में निरन्तर गूंजती रही और भारतीय जन-समाज उस पवित्रता की ओर दौड़ भी लगाता रहा। जो ब्राह्मण के कुल में जन्मा था, वह भी दौड़ा और जो क्षत्रिय-कुल में पैदा हुआ था, वह भी दौड़ा। क्योंकि उसे मालूम था कि पवित्रता अकेले जन्म लेने से नहीं आएगी, उसे तो उच्च कर्तव्यों द्वारा ही प्राप्त करना होगा । वह प्रयत्न से ही प्राप्त हो सकेगी, अन्यथा नहीं। ____एक श्रावक इन्सान के रूप में ही जन्म लेता है और एक साधु भी इन्सान के रूप में ही जन्म लेता है। क्या श्रावक का 'श्रावकपन' और साधु का 'साधुपन' शरीर के साथ ही आया था ? नहीं, शरीर उसे साथ में लाद कर नहीं लाया। उसे तो आचरण और साधना के द्वारा यहाँ पर ही प्राप्त करना होता है। पुरुषार्थ इस प्रकार उस युग में कोई किसी भी धर्म का अनुयायी क्यों न रहा हो, प्रायः सभी ने पुरुषार्थ की साधना के द्वारा ही अपेक्षित पवित्रता को प्राप्त करने का प्रयत्न किया और उसे पाने के लिए सदाचार के पथ पर निरन्तर दौड़ लगाते रहे। किन्तु दुर्भाग्य और परिस्थितियों के प्रकोप से विचार उलट गये और ऐसी विचित्र धारणा बन गई कि ब्राह्मण के यहाँ जन्म लेने मात्र से 'पवित्रता' प्राप्त हो गई और जैनकूल में जन्म लेने मात्र से ही 'जैनत्व' मिल गया। जब इन प्रकार जन्म लेने मात्र से पवित्रता मिल जाने का विचार दृढ़ हो गया तो फिर नैतिक पवित्रता के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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