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जातिवाद : सामाजिक हिंसा का अग्रदूत
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की कब्र बना रहा है। कहना चाहिए, वह आज पशुओं की जीवित कब्र पर ही सो रहा है। यह भयंकर पशु-संहार तब तक नहीं रुक सकता, जब तक मनुष्य के अन्दर शुद्ध देवत्व जागृत न हो, शुद्ध दृष्टिकोण न जगे, संसार के प्रत्येक जीवधारी में अपने समान ही आत्मा के दर्शन न करे ।
____ मनुष्य की भोगेच्छा आज इतनी प्रबल हो रही है कि उसकी बुद्धि कर्त्तव्य से चुंधिया गई है। अहंकार जागृत हो रहा है, फलतः वह सृष्टि का सर्वोत्तम एवं सबसे महान् प्राणी अपने को ही समझ रहा है। उसकी यह दृष्टि बदलनी होगी, आत्मा की समानता का भाव जगाना होगा। उसे यह अनुभव कराना होगा कि जिस प्रकार की पीड़ा तुझे अनुभव होती है, वैसी ही पीड़ा की अनुभूति प्रत्येक प्राणी में है । किन्तु यह एक विचित्र बात है कि हम सिर्फ उपदेश दे कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं, अध्यात्मवाद और अध्यात्मदृष्टि का गम्भीर विश्लेषण करके उसे छोड़ देते हैं, विचारों से उतर कर अध्यात्मवाद आचार में नहीं आ रहा है, मुंह से बाहर निकल रहा है, मन की गहराई में नहीं उतर रहा है। जब तक अध्यात्म की चर्चा करने वालों के जीवन में इसका महत्त्व नहीं आंका जायेगा, तब तक अध्यात्म को भूत-प्रेत की तरह भयानक समझ कर डरने वालों को हम इस ओर आकर्षित कैसे कर सकेंगे? इसके लिए आवश्यक है कि हमारी धर्म-दृष्टि, हमारा अध्यात्म, पहले जीवन में मुखर हो। इसका प्रचार हमें अपने जीवन से शुरू करना चाहिए, तभी हमारी अध्यात्मदृष्टि की कुछ सार्थकता है, अन्यथा नहीं। जातिभेद शरीर में नहीं दीखता
गत प्रवचन में सामाजिक हिंसा का विवेचन करते हुए बतलाया था कि 'मनुष्य जाति एक है और वह प्राणि-संसार की सर्वश्रेष्ठ जाति है। मनुष्य का जीवन बहुत बड़े सौभाग्य से प्राप्त होने वाली एक बहुमूल्य निधि है। जैनशास्त्र और दूसरे शास्त्र भी यही कहते हैं कि देवता बनना आसान है, किन्तु मनुष्य बनना कठिन है। चौरासी लक्ष जीव-योनियों में मटकते हुए बड़ी कठिनाई से मनुष्य का चोला मिलता है । इन्सान की ऊँचाई, वस्तुतः बहुत बड़ी ऊंचाई है।
ज्यों ही मानव-जीवन की महत्ता का विचार हमारे मन में आता है, त्यों ही एक अतिमहत्त्वपूर्ण प्रश्न सामने उपस्थित हो जाता है। प्रश्न यह है कि-मनुष्य का मनुष्य के प्रति कैसा व्यवहार होना चाहिए ? मनुष्य यदि मनुष्यता का मूल्य समझता है तो उसे दूसरे मनुष्यों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए ?
इन्सान का चोला मिल जाने पर भी इन्सान को यदि इन्सान की आत्मा नहीं मिली, हाथ-पैर आदि अवयव इन्सान के मिल गए; किन्तु यदि भीतर हैवानियत ही भरी रही तो यह बाहर का मानवीय चोला किस काम का ? घृणा, द्वेष, अहंकार--- ये सब पशुता की भावनाएँ हैं, मनुष्यता की नहीं। मनुष्य के चोले में भी यदि ये
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