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अहिंसा-दर्शन
इतिहास इसका प्रमाण है कि ऋषि-परम्परा से पूर्व श्रमण-परम्परा ने मानवमात्र को यह ज्ञान प्रदान किया कि-"मानव! जिस प्रकार तूने सुख एवं शान्तिपूर्ण पथ से यात्रा करने के लिए मानव-तन पाया है, उसी प्रकार विश्व के समस्त प्राणी भी सुख एवं शान्ति का जीवन चाहते हैं । अतः जिस प्रकार तुम अपना अहित नहीं कर सकते, अपना अहित नहीं देख सकते, अपने लिए कतई पीड़ा एवं दुःख नहीं चाह सकते - विश्व के अन्य सभी जीव भी अपने लिए ऐसा कुछ नहीं चाहते हैं । जीवन जीना है, तो क्या तामसिक वृत्तियों से ही जिया जा सकता है ? क्या सात्विक वृत्तियाँ जीवनविकास में कोई बाधक हैं ? क्यों नहीं मांस-भक्षण की जगह अन्न से क्षुधातप्ति की जाए ? क्यों नहीं पशुओं की खाल की जगह कपास की कृषि के द्वारा वस्त्र तैयार करके, सर्दी-गर्मी एवं लज्जा से अपने शरीर की रक्षा की जाए ?"
मानव-जीवन के विकास का इतिहास आज भी इस बात को दुहरा रहा है कि श्रमण-संस्कृति ने इस प्रकार मानवमात्र को परिबोध देकर अहिंसा के सहारे मानव को मानव का जीवन प्रदान किया । श्री दिनकरजी जैसे साहित्यकारों की दृष्टि में मानव को पशु-जीवन से ऊपर उठा कर अहिंसा, दया, प्रेम एवं सहानुभूति के मार्ग पर ला कर मानवता का निर्मल जीवन-प्रदान करने का प्रथम श्रेय भगवान् ऋषभदेव को ही मिलता है। अहिंसा : जीवन की हर प्रवृत्ति का आधार स्तम्भ :
अहिंसा श्रमण-संस्कृति-जैनसंस्कृति-की विश्वसंस्कृति को महान् देन है, ऐसा कहें तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। श्रमण-संस्कृति में अहिंसा, जीवन एवं धर्म की सबसे पहली कसौटी है, यानी अहिंसा के केन्द्र से ही श्रमण-संस्कृति का पहला चरण बढ़ता है। जैनधर्म की उत्पत्ति का प्रथम सिद्धान्त ही अहिंसा-भावना है । पश्चात्, इस अहिंसा को भारत के अन्य धर्म एवं संस्कृतियों ने भी एक भाव से हृदयंगम कर लिया। आगे चल कर तो यह अहिंसा करुणा, प्रेम एवं सहिष्णुता के रूप में भारतीय संस्कृति का प्राण ही बन गई; जैनदर्शन का तो यह हृदय ही है। इसकी विशद व्याप्ति में सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य आदि समस्त व्रतों का स्वतः समावेश हो जाता है ।२६ श्रमणसंस्कृति का मूलस्वरूप अहिंसा है और सत्य आदि उसका विस्तार है । ब्रह्मचर्य उसकी संयम साधना है, अस्तेय और अपरिग्रह उसका तप है।
जैनधर्म की छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी प्रत्येक साधना में अहिंसा का जीवन-संगीत चलता है। आध्यात्मिक जीवन-निर्माण के लिए किये जाने वाले व्रत
२६ अहिंसा-गहणे पंच महव्वयाणि गहियाणि भवंति ।
संजमो पुण तीसे चेव अहिंसाए उवग्गहे वट्टइ, संपुण्णाय अहिंसाय संजमो वि तस्स वट्टइ ।
-~~-दशवकालिक, चूणि १ अध्ययन
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