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अहिंसा : जीवन की अन्तगंगा
पारसी और ताओ धर्म में अहिंसा - भावना
पारसी धर्म के महान् प्रवर्तक महात्मा जरथुस्ट ने कहा है कि - " जो सबसे अच्छे प्रकार की जिन्दगी गुजारने से लोगों को रोकते हैं, अटकाते हैं और पशुओं को मारने की सिफारिश करते हैं, उनको अहुरमज्द बुरा समझते हैं । २७ अत: अपने मन में किसी से बदला लेने की भावना मत रखो। बदले की भावना तुम्हें लगातार बदला मत लो। बदले की भावना से प्रेरित मन में सदा-सर्वदा सुन्दर विचारों के दीपक
सताती रहेगी ! अतः दुश्मन से भी हो कर कभी कोई पापकर्म मत करो। सँजोए रखो ।”
ताओ धर्म के महान् प्रणेता - लाओत्से ने अहिंसात्मक विचारों को अभिव्यक्त करते हुए कहा है कि - " जो लोग मेरे प्रति अच्छा व्यवहार नहीं करते, उनके प्रति भी मैं अच्छा व्यवहार करता हूँ ।"२८
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कनफ्यूशस-धर्म के प्रवर्त्तक कांगफ्यूत्सी ने कहा है कि - "तुम्हें जो चीज नापसन्द है, वह दूसरे के लिए हर्गिज मत करो। "
२७ गाथा
२८ लाओ तेह किंग ।
उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि श्रमण संस्कृति के मूल संस्थापक भगवान् ऋषभदेव ने अहिंसा का जो बीज बोया तथा अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने जिसे पल्लवित, पुष्पित एवं फलित किया, उसे विश्व के समस्त धर्मों ने अपने धर्म के हृदय के रूप में अंगीकार किया । अतः श्रमणसंस्कृति की अमर देन - अहिंसा वह महान् शक्ति है, जो विश्व के समस्त धर्मों को पारस्परिक ऐक्य - सूत्र में संबद्ध करने में सहज समर्थ है । यह विश्व के समस्त धर्मों को श्रमणसंस्कृति की महान् देन है ।
आदिमयुग का मानव और जीवन में अहिंसा का उदय
मानव विकास के क्रमों पर आज की वैज्ञानिक दृष्टि सर्वप्रथम आदिमयुग पर जा टिकती है। आदिमयुग का मानव जंगलों में भटका करता था । जंगली जानवरों का शिकार करना, उनके कच्चे - अधपके मांस से क्षुधा तृप्ति करना, तथा उनकी खालों को वस्त्र की जगह पहनना, यही प्रायः उसका नित्य का जीवन था । आदिममानव का यह जीवनक्रम बताता है कि अपने से इतर किसी भी प्राणी का मूल्य उसके लिए कुछ भी न था । बस, कुछ मूल्य था तो इतना ही कि उन्हें मारकर अपनी क्षुधापूर्ति करना एवं उनकी खाल को पहन लेना भर । तब के मानव को कहाँ यह पता था कि सभी प्राणी एक समान हैं, सभी हमारी तरह ही सुख-दुःखों का अनुभव करते हैं, हमारी तरह ही दुःखों से मुक्ति चाहते हैं और सुखों की कामना करते हैं ।
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हा० ३४, ३
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