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________________ २३२ अहिंसा-दर्शन और चाण्डाल की आत्मा को एक दृष्टि से नहीं देख सके । उन्होंने हर वर्ग के बीच भेद और घृणा की दीवारें खड़ी कर दी थीं। शूद्र की छाया पड़ने से वे अपने को अपवित्र समझ बैठते थे । क्या इतनी नाजुक थी उनकी पवित्रता, कि किसी की छायामात्र से वह दूषित हो उठती ? कोई भी शूद्र धर्मशास्त्र का अध्ययन नहीं कर सकता था ! क्या धर्मशास्त्र इतने पोचे थे कि शूद्र के छूते ही वे भ्रष्ट हो जाते ? जरा सोचें तो लगेगा कि कैसी भ्रान्त धारणाएँ थीं कि जो शास्त्र ज्ञान का आधार माना जाता है, जिससे प्रवाहित होने वाली ज्ञान की धारा अन्तरंग के कलुष को, अनन्त - अनन्त जन्मों के पापों को धो कर स्वच्छ कर देती है, प्रकाश जगमगा देती है, संसार को दासता और बन्धनों से मुक्त करके आत्म-स्वातन्त्र्य और मोक्ष के केन्द्र में प्रतिष्ठित करने में समर्थ है, वह शास्त्र और उसकी ज्ञानधारा उन्होंने एक वर्ग के हाथों में सौंप दी और कह दिया कि दूसरों को इसे पढ़ने का अधिकार नहीं । पढ़ने का अधिकार छीना सो तो छीना, उसे सुनने तक का भी अधिकार नहीं दिया । जो शूद्र पवित्र शास्त्र का उच्चारण कर दे, उसकी जीभ काट दी जाय, और जो उसे सुन ले, उसके कानों में खौलता हुआ शीशा डाल कर शास्त्र सुनने का दण्ड दिया जाय ! कैसा था यह मानस ? मनुष्यमनुष्य के बीच इतनी घृणा ! इतना द्व ेष ! जो शास्त्र महान् पवित्र वस्तु मानी जाती थी, उसमें भाषा को ले कर भी विग्रह पैदा हुए। एक ने कहा – संस्कृत देवताओं की भाषा है, अत: उसमें जो शास्त्र लिखा गया है, वह शुद्ध है, पवित्र है और प्राकृत तथा अन्य भाषाओं में जो भी तत्त्वज्ञान है, शास्त्र है, वह सब अपवित्र है, अधर्म है; तथा दूसरे ने प्राकृत को ही महत्त्व दिया । उसे ही देवताओं की भाषा माना, पवित्र माना । इस प्रकार की भ्रान्त धारणाएँ इतिहास के पृष्ठों पर आज मी अंकित हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि मनुष्य के अन्दर जाति, वंश, धर्म और भाषा का एक भयंकर अर्हकार जन्म ले रहा था और ऐसा अहंकार, जो संसार में अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए दूसरों की श्रेष्ठता, प्रतिष्ठा और सम्मान को खण्ड-खण्ड करने पर तुल गया था । दूसरों की प्रतिष्ठा का महत्त्व गिरा कर प्रतिष्ठा एवं श्रेष्ठता के महल, उन खण्डहरों पर खड़ा करना चाहता था । उन्होंने मनुष्य के सम्मान का, उसकी आत्मिक पवित्रता का और आत्मा में छिपी दिव्यज्योति का अपमान किया, उसकी अवगणना की और उसे नीचे गिराने एवं लुप्त करने की अनेक चेष्टाएँ कीं। उन्होंने चरित्र का, सदाचार का मूल्य जाति और वंश के सामने गिरा दिया। इस प्रकार अध्यात्मवाद का ढिंढोरा पीट कर भी वे भौतिकवादी बने रहे । भगवान् महावीर ने यह स्थिति देखी, तो उनके अन्दर में क्रान्ति की लहर लहरा उठी, उनके अन्तःस्फूर्त स्वर गूंज उठे - उ श्रेष्ठता और पवित्रता का आधार जाति नहीं है, बल्कि मनुष्य का अपना कर्म है, अपना आचरण है । कर्म से ही व्यक्ति ब्राह्मण होता है और कर्म से ही क्षत्रिय । वैश्य और शूद्र भी ३ “कम्मुणा बंभणी होई, कम्मुणा होई खत्तिओ । इसो कम्मुणा होई, सुद्दो हवइ कम्मुणा ||" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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