SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जातिवाद : सामाजिक हिंसा का अग्रदूत २३३ कर्म के आधार पर ही होता है । संसार में कर्म की प्रधानता है। समाज के वर्ण और आश्रम कर्म के आधार पर ही विभक्त हैं। इसमें जाति का कोई कारण नहीं है । मनुष्य की तेजस्विता और पवित्रता उसके तप और सदाचार पर टिकी हुई है, न कि जाति पर ? 'जाति का कोई कारण नहीं दीख रहा है।' मनुष्य कर्म के द्वारा ऊँचा होता है, जीवन की ऊँचाइयों को नापता है और कर्म के द्वारा ही नीचे गिरता है, पतित होता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि इस युग में मानव के मन में-जातिवाद और वर्गवाद का जो एक काँटों का घेरा खड़ा हो गया था, उसे जैनधर्म ने तोड़ने की कोशिश की, मनुष्य-मनुष्य और आत्मा-आत्मा के बीच समता एवं समरसता का भाव प्रतिष्ठित करने का सक्षम प्रयत्न किया । जैनधर्म ने आपको सन्देश दिया है कि 'प्रत्येक आत्मा समान है। तुम यह भावना मन से निकाल दो कि कोई व्यक्ति जन्म (जाति) से ऊँचा या नीचा है, बल्कि यह सोचो कि उसकी आत्मा कैसी है ? प्रश्न जाति का नहीं, आत्मा का करो। आत्मा की दृष्टि से वह शुद्ध और पवित्र है या नहीं, इस प्रश्न पर विचार करो। पूर्वाचार्यों ने विश्व की आत्माओं को समत्व दृष्टि देते हुए कहा है किसंसार की समस्त आत्माओं को हम दो दृष्टियों से देखते हैं-एक द्रव्यदृष्टि से और दूसरी पर्यायदृष्टि से । जब हम बाहर की दृष्टि से देखते हैं, पर्याय की दृष्टि से विचार करते हैं, तो संसार की समस्त आत्माएँ अशुद्ध मालूम पड़ती हैं। चाहे वह ब्राह्मण की आत्मा हो अथवा शूद्र की आत्मा; यहाँ तक कि तीर्थंकर की ही आत्मा क्यों न हो, वह जब तक संसार की भूमिका पर स्थित है, अशुद्ध ही प्रतीत होती है । जो बन्धन है, वह तो सबके लिए ही बन्धन है । लोहे की बेड़ी का बन्धन भी बन्धन है और सोने की बेड़ी का बन्धन भी बन्धन ही है । जब तक तीर्थंकर प्रारब्ध-कर्म के बन्धन से परे नहीं होते हैं, तब तक वह भी संसार की भूमिका में होते हैं, और संसार की भूमिका अशुद्ध भूमिका है । आत्मा जब विशुद्ध होती है पर्याय की दृष्टि से भी विशुद्ध होती है, तब वह मुक्त हो जाती है, संसार की भूमिका से ऊपर उठ कर मोक्ष की भूमिका पर चली जाती है । इस प्रकार तीर्थंकर और साधारण आत्माएँ संसार की भूमिका पर पर्याय की दृष्टि से एक समान हैं। आप सोचेंगे, तो पायेंगे कि जैनधर्म ने कितनी बड़ी बात कही है । जब वह सत्य की परतें खोलने लगता है, तो वहाँ किसी का भेद नहीं मानता, सिर्फ सत्य को स्पष्ट करना ही उसका एकमात्र लक्ष्य रहता है । यदि हम द्रव्यदृष्टि से आत्मा को देखते हैं-तो द्रव्य अर्थात् मूलस्वरूप की दृष्टि से प्रत्येक आत्मा ज्ञानमय है, शुद्ध एवं पवित्र है। जल में चाहे जितनी मिट्टी मिल गई हो, कोयले का चूरा पीस कर डाल दिया गया हो, अनेक रंग मिला दिये गए हों, जल कितना ही अशुद्ध, अपवित्र और गन्दा क्यों न प्रतीत होता हो, पर यदि ४ “न दीसई जाइविसेस कोई" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy