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________________ जातिवाद : सामाजिक हिंसा का अग्रदूत २३१ "और, यदि तुम्हारे समक्ष कोई दरिद्र भिखारी गली-कूचों में ठोकरें खाने वाला श्वपाक या अन्त्यज चाण्डाल, जो संसार की नजर में नीच कहा जाता है, वह भी आ जाए, तो जिस प्रकार से तथा जिस भाव से सम्राट को उपदेश दिया है, उसी प्रकार से और उसी भाव से उस तुच्छ और साधारण श्रेणी के व्यक्ति को भी देखो, उसके बाहरी रूप और जाति पर मत उलझो। यह देखो कि वह भी एक भव्य आत्मा है, और उसकी आत्मा को जागृति का सन्देश देना हमारा धर्म है।" आप देखेंगे कि जैनधर्म का स्वर कितनी ऊँचाई तक पहुँच गया है ! साधारण जनता जिस प्रकार एक सम्राट् और एक श्रेष्ठी के प्रति सम्मान और सभ्य भाषा का प्रयोग करती है, एक कंगाल भिखारी और एक अन्त्यज के प्रति भी जैनधर्म उसी भाषा और उसी सभ्यता का पालन करने की बात कहता है। जितनी दृढ़ता और निर्भयता मन में होगी, सत्य का स्वर भी उतना ही स्पष्ट एवं मुखर होगा । अतः भिखारी और दरिद्र के सामने तुम जितने निर्भय और स्पष्टवादी हो कर सत्य को प्रकट करते हो, उतने ही निर्भय और दृढ़ बन कर एक सम्राट् को भी सत्य का सन्देश सुनाओ । तुम्हारा सत्य और सुदृढ़ सत्य स्वर्ण की चमक के सामने अपनी तेजस्विता कम न होने दे, सोने के ढक्कन से उसका मुंह बन्द न हो जाए। जैसा कि ईशोपनिषद् में कहा गया है"सोने के पात्र से सत्य का मुंह ढका हुआ है।"२ सम्राट् और तुम्हारे बीच में सम्राट के धन और वैभव, शक्ति और साम्राज्य का विचार खड़ा मत होने दो। और न दरिद्र और तुम्हारे बीच में दरिद्र की नगण्यता एवं तुच्छता का क्षुद्र विचार ही खड़ा हो । दोनों की आत्मा को समान समझो, अतः दोनों को समानभाव से धर्म का संदेश दो, निर्भय और निरपेक्ष हो कर, निष्काम और तटस्थ हो कर । जाति नहीं, चरित्र ऊँचा है मैं आपसे कह रहा था-जैनधर्म शरीरवादियों का धर्म नहीं है । अष्टावक्र ऋषि के शब्दों में कहूँ तो वह 'चर्मवादी' धर्म नहीं है। वह शरीर, जाति या वंश के भोतिक आधार पर चलने वाला 'पोला धर्म नहीं है। अध्यात्म की ठोस भूमिका पर खड़ा है। वह यह नहीं देखता कि कौन भंगी है, कौन चमार है और कौन आज किस कर्म तथा किस व्यवसाय में जुड़ा है ? वह तो व्यक्ति के चरित्र को देखता है, पुरुषार्थ को देखता है और देखता है उसकी आत्मिक पवित्रता को। जाति-वंश-धर्म-भाषागत अहंकार : हिंसा का मूल भारतवर्ष का इतिहास, जब हम देखते हैं, तो मन पीड़ा से भारी हो जाता है । और, हमारे धर्म एवं अध्यात्म के प्रचारकों के चिन्तन के समक्ष एक प्रश्नचिन्ह लग जाता है कि वे क्या सोचते थे ? और कैसा सोचते थे ? प्राणिमात्र में ब्रह्म का प्रतिबिम्ब देखने वाले भी श्रेष्ठी और दरिद्र की आत्मा को, ब्राह्मण २ 'हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यपि हितं मुखम्' -ईशोपनिषद् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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