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घृणा : समग्र समाज में व्याप्त हिंसा का मूल
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की चेष्टा घातक है। एक-दूसरे की निन्दा का कुचक्र चल रहा है, कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष, दिगम्बरों और श्वेताम्बरों की लड़ाइयाँ आप देख ही रहे हैं। एक-दूसरे को मिथ्यादृष्टि कहता है, जैनाभास कह कर सम्बोधित करता है। श्वेताम्बरों में भी स्थानकवासी और तेरापंथी घृणा के आधार पर ही तो अब तक लड़ते रहे हैं । 'भेखधारी', 'मिथ्यात्वी' और 'पाखण्डी' के सिवाय कौन से शुभ शब्दों का प्रयोग हुआ है एक-दूसरे के लिए ? प्रायः सब अपनी-अपनी महत्ता को प्रस्थापित करने के लिए दूसरों को नीचा दिखाते आए हैं ।
घृणा और द्वेष के ये बीज जब धर्म-सम्प्रदायों में पनपे तो उनका जहरीला प्रभाव समाज पर भी पड़ा। समाज और जातियाँ परस्पर घृणा की शिकार हुई, एक जाति ने दूसरी जाति के प्रति विष उगला, घृणा फैलाई ! घृणा की ये बातें कहावतों में आज भी चली आ रही हैं- "बनिये के लिए स्थानस्थान पर ब्राह्मण के मुंह से कहलाया गया कि वह चोर है, झूठा है; पानी छान कर पीता है मगर खून अनछाना ही पी जाता है"-"पानी पीवं छाण लोही अणछायो पीव" । बनिये के मुह से ब्राह्मण को भी कोसा गया--'कि वह पेटू है, बुद्धिहीन होता है 'ब्राह्मण सप्पमपाट ।' इस प्रकार निन्दात्मक कहावतें एक जाति ने दूसरी जाति के प्रति जनता में फैला रखी है । और इसके परिणामस्वरूप परस्पर संघर्ष की चिनगारियाँ उछलती रही हैं, आपस में एक-दूसरे के शत्र बनते रहे हैं। जहाँ एक-दूसरे वर्ग के प्रति विषाक्त वायुमंडल बना हुआ है वहाँ प्रेम और भ्रातृभाव के स्वस्थ विचार किस प्रकार जन्म ले सकते थे, राष्ट्रीय एकता और संगठन की नींव किस आधार पर टिक सकती थी?
पारिवारिक जीवन में हिंसा
धर्म-सम्प्रदायों और जातियों के मनों का यह विष परिवार के बीच भी अपना जहरीला प्रभाव डाले बिना नहीं रहा । नाते-रिश्तेदारियाँ, जोकि परस्पर स्नेह और प्रेम के सूत्र में बंधी होती हैं, उनमें भी कटुता, अविश्वास और घृणा के बीज डाल दिए गए । निन्दा के प्रहारों से मामा, भानजा और जॅवाई को भी नहीं छोड़ा गया । किसी को मतलबी और घरखाऊ बतलाया, तो किसी को दशवाँ ग्रह भी बना डाला। 'जामाता दशमो ग्रहः' । मतलब यह कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जिधर देखो उधर घृणा के काँटे ही काँटे बिछा दिए गए हैं। द्वेष और अविश्वास की विषैली हवाएँ भर कर जीवन के स्नेह और सौहार्द को खत्म कर दिया गया है। माताओं के प्रति भी कहा गया है कि "सौतेली 'माँ' माँ नहीं है। उसके मन में तो स्नेह और प्रेम होता ही नहीं ! वह तो पहली के बच्चों को डाइन की तरह घूरती रहती है ।" इस प्रकार की बातें बच्चों के समक्ष कही जाती हैं और उनके स्वच्छ मन में सौतेली माँ के प्रति स्नेह-सद्भाव के स्थान में अनादर एवं घृणा का विष भरा जाता है ।
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