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________________ २२४ अहिंसा-दर्शन एक ही उत्तर मिलता है—घृणा और विद्वष । हजारों वर्षों से सबने एक-दूसरे के प्रति यही घृणा का प्रचार किया है । जातिवाद के नाम पर हिंसा का विष भारत में धर्म और दर्शन ने एक ओर बड़ी ऊँची-ऊँची बातें की हैं। हर आत्मा को परब्रह्म का रूप माना है। हर जीव को ईश्वर का अंश माना है । किन्तु खेद है, दूसरी ओर यह भी कह डाला कि - " यदि कोई शूद्र भूल से भी वेदमंत्र का उच्चारण कर दे, तो उसकी जीभ काट ली जाए। पास गुजरते हुए किसी शूद्र के कानों में वेदमंत्र की ध्वनि भी पड़ जाए तो उसके कानों में खौलता हुआ शीशा डाल दिया जाए ।" और यह सब एक ऐसे विद्वान् मनीषी आचार्य के मुँह से कहलाया गया है, जो मुक्तकंठ से कह रहा है कि - 'प्राणिमात्र में ईश्वर के चैतन्य का प्रतिबिम्ब है । जिसकी दृष्टि में हर जीव ईश्वर का अंश है । अंश क्या, ईश्वर ही है ।' और इन सब आदर्श वचनों पर संसार आज भी मुग्ध है । किन्तु आश्चर्य है, ये ही महापुरुष अन्यत्र किसी के जीवन की पवित्रता की बात नहीं पूछ रहे हैं, व्यक्ति की आत्मिक शुद्धि का और तत्त्वज्ञान का कोई मूल्य नहीं हैं उनकी दृष्टि में। सिर्फ एक ही बहाव में बहे जा रहे हैं' बेबस तिनकों की तरह, और वह बहाव है - अर्थहीन जातिपाँत के नाम पर मनुष्य को मनुष्य के प्रति घृणा का । हमारी बौद्धिक चेतना दो विरोधी धाराओं में बह रही है, जिसका कोई समाधान नहीं मिल रहा है । गुरुवाद के नाम पर हिंसा का विष मध्ययुग का हमारा इतिहास मनुष्य के इन लज्जास्पद आचरणों से इतना गंदा हो गया है कि कुछ पूछिए नहीं । जैन समाज में ही इतने खण्ड एवं प्रखण्ड हैं जो नगण्य से भेदों के आधार पर आज वज्रकाय बन गए हैं । हम देखते हैं- एक ही गुरु के दो शिष्य परस्पर गुरु भाई प्रतिद्वन्द्वी की तरह अखाड़े में उतरते हैं, विग्रह करते हैं और अपनी सम्प्रदाय अलग से खड़ा करते हैं, तो किस आधार पर ? अपनी प्रशंसा और दूसरों की निन्दा के सिवाय उनके पास और क्या आधार हो सकता है ? उनके पास संसार को देने के लिए साम्प्रदायिक घृणा के सिवाय और क्या होगा ? भगवान् महावीर का उपदेश उन्हें इस प्रकार चेले बटोरने के लिए कहता है क्या ? गृहस्थवर्ग पर भेड़-बकरियों की तरह अपनी-अपनी सम्प्रदाय की छाप लगाने के लिए कहता है क्या ? भगवान् महावीर का उदात्त धर्म इन प्रपंचों से सर्वथा परे है । उसका आधार गुणीजनों की बिना किसी अपने-पराये के विभेद के प्रशंसा है, निन्दा नहीं । अपने दोषों की आलोचना है, पराई निन्दा नहीं । प्रतिष्ठा का प्रश्न अवश्य महत्त्वपूर्ण है । संभव है, वह किसी को अपेक्षित हो, पर वह प्रतिष्ठा सात्त्विक होनी चाहिए, अपने कर्त्तव्य और त्याग के आधार पर मिलनी चाहिए। दूसरों की प्रतिष्ठा के भव्य महल को गिरा कर, जिस किसी भी • तरह उनकी प्रसिद्धि की ईंटों को तोड़-फोड़ कर अपनी प्रतिष्ठा का महल खड़ा करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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