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अहिंसा-दर्शन
घृणा से किया गया त्याग, त्याग नहीं
भगवान् महावीर का दर्शन इस सम्बन्ध में एक बहुत ही विलक्षण बात कहता है । आप किसी वस्तु का त्याग करते हैं, उससे अपना रागात्मक सम्बन्ध तोड़ते हैं, पर यदि वह त्याग किसी घृणा या द्वष से प्रेरित हो कर करते हैं, तो वह मानसिक शुद्धि का हेतु न हो कर उलटा पतन का कारण बन जाता है। त्याग का अर्थ वस्तु का प्रयोग न करना ही नहीं है, अपितु उसके साथ आपकी मनोवृत्ति कैसी है, आपका मानसिक लगाव किस प्रकार का है, यह भी मुख्य बात है। मान लीजिये, परिवार में किसी से झगड़ा हो गया, एक दूसरे से तन गए और ऐसे तने कि बोलना भी बन्द कर दिया । चाहे भाई-भाई हो या पति-पत्नी परस्पर 'अबोला' हो गया । अहंग्रस्त क्रोध में दिनभर चुपचाप पड़े रहे, किसी से कुछ बोले नहीं, किसी से कुछ कहा नहीं, तो यह क्या मौनव्रत की साधना हुई ? यह कलहजन्य 'अबोला' का मौन क्या आत्मा की विशुद्धि का कारण हो सकता है ? भगवान् महावीर ने कहा है, यदि क्रोधवश किसी से अनबन हो गई हो, अबोला हो गया हो, तो सबसे पहले उस मौन को तोड़ कर क्षमायाचना करो । क्रोध या द्वेष के कारण किया हुआ कोई भी त्याग त्याग नहीं है, कोई भी ‘पच्चक्खाण' पच्चक्खाण नहीं है, राग का त्याग वीतरागभाव से होना चाहिए, द्वेषभाव से नहीं । द्वेषभाव से किया गया राग का त्याग कर्मबन्ध का हेतु है । अतः वह आत्मशुद्धि का साधक नहीं, अपितु बाधक है ।
विवित्तचरिया'-एकान्तवास तप है, किन्तु किसी से कलह एवं झगड़ा करके यदि कोई कमरा बन्द करके सो जाए, एकान्त में कहीं अकेला चुपचाप पड़ा रहे, तो क्या इसे विवित्तचरिया कहेंगे ? क्या यह एकान्तवासरूप तप कहा जायेगा ? इस प्रकार कलह में एकान्तवास होगा भी कहाँ ? आदमियों से दूर रहे, भीड़ से दूर रहे, पर, मन के विकारों से तो घिरे रहे, क्रोध और घृणा के भाव तो आत्मा से चिपटे रहे। यह एकान्तवास नहीं है । आत्मा की शुद्धि का कारण नहीं है । मौन हो, उपवास हो, या एकान्तवास हो, यदि ये सब घृणा, क्रोध एवं द्वषबुद्धि से किये जाते हैं, तो देहदण्ड हो सकते हैं, कष्ट एवं दुःख हो सकते हैं, पर तप नहीं हो सकते, त्याग नहीं हो सकते, उससे कर्मों की निर्जरा नहीं होती। अपितु कर्मों का तीवबन्ध होता है, पूर्व स्थिति से भी भयंकर।। त्याग, राग-द्वेष से परे हो कर
आध्यात्मिक क्षेत्र में जैसे कि राग से बच कर चलने को कहा है, वैसे ही द्वेष से भी बच कर चलने का उपदेश दिया है। दोनों से ही दूर तटस्थवृत्तिपूर्वक चलना है, ग्रहण और त्याग दोनों ही तटस्थभाव से होने चाहिए। जो भी प्रवृत्ति करो, वह वस्तुनिष्ठ नहीं, उपयोगितानिष्ठ हो कर करो। उपयोग करने में न राग का भाव होना चाहिये और न द्वष का । वस्तु के साथ राग का भाव जुड़ा रहा तो उपयोग में आने के बाद भी उससे राग नहीं छूटेगा । वस्तु छूट जाने पर, आवश्यकता पूर्ण हो जाने पर
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