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________________ घृणा : समग्र समाज में व्याप्त हिंसा का मूल २२१ भी मनुष्य उसके साथ यदि रागपूर्वक चिपटा रहता है, तो फिर वह उपयोग आनन्द की जगह संताप और कष्ट का कारण बन जाता है। भोजन किया जाता है। किसलिए ? भूख की निवृत्ति के लिये । भूख लगी तो भोजन कर लिया, भूख शान्त हुई तो उससे निवृत्त हो गए। भोजन की उपयोगिता भूख-निवारण के लिये है या भोज्यवस्तु की स्वादिष्टता के लिए ? भूख-निवारण के लिये भोजन करना नैतिक है, किन्तु स्वाद या राग के वश हो कर भोजन करना अनैतिक है । भूख मिटाने के लिये खाने वाला व्यक्ति जब तक जरूरत होती है, खाता रहता है, जब देखता है कि अब जरूरत नहीं है, तो तुरन्त भोजन बन्द कर देता है। कितने ही स्वादिष्ट से स्वादिष्ट पदार्थ क्यों न हों, वह नहीं खाएगा । किन्तु जब भोजन आवश्यकता एवं उपयोगिता की दृष्टि से हट कर राग की दृष्टि से जुड़ जाता है तब वह जरूरत न होने पर भी खाया जाता है। पेट मना कर रहा है महाराज ! बस कृपा करो, अब जगह नहीं है, पर वह खाता चला जाता है । उससे पूछिए इतना क्यों खाते रहे, तो कहेगा -“क्या करें भाई ! अच्छी चीज थी, खाते चले गये, जीभ से छूट नहीं सकी।" मतलब यह कि भूख तो नहीं थी, जरूरत भी नहीं थी, किन्तु चीज स्वादिष्ट थी, इसलिये छोड़ नहीं सके, ज्यादा खा गये, और अब कष्ट पा रहे हैं । यह राग का लक्षण है। इसी प्रकार द्वेष से भी कष्ट उठाना पड़ता है। भोजन करने बैठे हैं, पर उसी समय किसी पर क्रोध आ गया, अथवा वस्तु स्वादिष्ट न होने से उसी पर द्वेष उमड़ पड़ा । ग्रास मुंह में डाल तो रहे हैं, पर वह बाहर आ रहा है, निगला नहीं जा रहा है । मन में संताप हो, द्वेष की आग दहक रही हो, तो भोजन चल नहीं सकता । आधे पेट ही आप उठ जाते हैं, भूखे रह जाते हैं तो यह भूखा रहना भी कोई तप नहीं हुआ, उपवास नहीं हुआ। दोनों ही जगह दोष है, राग में भी और द्वष में भी ! राग और द्वेष से परे हो कर तटस्थभाव से जो किया जाता है, वह धर्म है, त्याग है । ___इस प्रकरण में दूसरी बात यह भी है कि जिस प्रकार भोजन ग्रहण करने में राग और द्वेष निमित्त बनते हैं, उसी प्रकार भोजन छोड़ने में भी बन सकते हैं । भोजन का त्याग किया जाता है तो किसलिए ? जैनदर्शन ने एक विलक्षण बात कही है कि ज्ञानी पुरुष (साधक) भोजन करते हुए भी कर्म निर्जरा करता है। आप पूछेगे—यह कैसे ? यही तो साधना है । जिस कार्य को करते समय दूसरे हजारों-लाखों मनुष्य कर्मबन्ध करते हैं, उसी कार्य को करते हुए साधक आत्मा की शुद्धि करता चला जाता है इसमें बाह्य कार्य या महत्त्व नहीं, अपितु अन्दर में कर्म में अकर्म की साधना का महत्त्व है। साधक भोजन करता है, तब भी आत्मा की शुद्धि के लिए, और छोड़ता है, तब भी आत्मा की शुद्धि के लिए । क्यों ? यही कि न उसके करने में राग है और न उसके छोड़ने में द्वेष ! राग-द्वष से मुक्त हो कर वह सिर्फ उपयोगिता और आवश्यकता की दृष्टि से कर रहा है, इसलिए आत्म-साधक का भोजन करना भी धर्म कहा गया है । साधना का ही एक अंग माना गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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