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________________ घृणा : समग्र समाज में व्याप्त हिंसा का मूल| २० - ___ संसार में दो प्रकार के विष हैं-एक विष वह है, जो बाहर में रहता है। और दूसरा विष वह है, जो हमारे भीतर में रहता है। जो विष बाहर में रहता है, उसके हजारों रूप हैं, हजारों नाम हैं, मनुष्य को मौत देना उसका काम है ; वह संसार को अनेक रूपों में मौत बाँटता रहता है। पर, सारे संसार भर के जहरों को एकत्र करके यदि इनका विष-तत्त्व निकाल लिया जाए, मारने की शक्ति को एक बिन्दु में केन्द्रित कर दिया जाए, तब भी वह हमारे अन्दर के जहरों की तुलना में एक नगण्य बिन्दुमात्र होगा । अन्दर के जहर की एक बूंद के बराबर भी संसार के समस्त जहरों की शक्ति नहीं है । इतना भयंकर है भीतर का यह हलाहल जहर ! बाहर का विष कब मारता है ? जब वह प्रयोग में लिया जाता है, खाया जाता है। किन्तु अन्दर का यह हिंसारूपी जहर तो प्रतिक्षण और प्रतिपल मारता रहता है और वह हिंसारूपी विष द्वेष, घृणा, ईर्ष्या आदि अनेक रूपों में प्रकट होता रहता है तथा मानव-जाति को अपनी विष-ज्वालाओं से दग्ध करता रहता है। इस जहर के लाखों-करोड़ों ही क्यों, असंख्यरूप हैं। कभी वह पारिवारिक जीवन में आता है तो कभी जातिगत जीवन में, तो कभी साम्प्रदायिक रूप में और कभी राष्ट्रीय रूप में आता है । कभी किसी रूप में, तो कभी किसी रूप में, वह मानव-जाति के विनाश का परवाना ले कर आता है। अपने भयंकर परिणामों से वह संसार को त्रस्त-ध्वस्त कर डालता है। अन्दर के जहरों में एक घृणा का जहर है, जो सबसे भयानक जहर है। इसे कालकूट जहर कह सकते हैं। घृणा और नफरत के जहर ने संसार में जो विनाश-लीला की है, उसका चित्र आँखों के सामने आते ही हृदय कंपित हो उठता है, मस्तिष्क शून्य हो जाता है । व्यक्ति के प्रति घृणा, वैर को जन्म देती है, हिंसा को बढ़ावा देती है। दूसरों की बदनामी, तोड़-फोड़, निन्दा यह सब धृणा के कुपरिणाम हैं। जीवन और जगत् में जब इसकी जहरीली हवाएँ फैलती हैं तो संसार को जला डालती हैं। भाई-भाई के बीच दीवारें खड़ी कर देती हैं, पिता-पुत्र के बीच गहरी खाइयाँ पैदा हो जाती हैं । मनुष्य इसके प्रभाव में पड़ जाता है तो अपना और अपने परिपार्श्व में आने वाले परिवार, समाज और धर्म तथा देश का विनाश करता चला जाता है, प्रेम, सौहार्द एवं मानवता के टुकड़े-टुकड़े कर डालता है। अतएव भगवान् महावीर के दर्शन ने कहा है-'घृणा जीवन का सबसे बड़ा शत्रु है । जिसने घृणा पर विजय पा ली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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