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________________ वर्ण-व्यवस्थागत सामाजिक हिंसा २१७ हुआ है । जो धर्म से प्रेम करता है वही सच्चा धर्मनिष्ठ है और वह धर्मात्माओं से प्रेम किए बिना कभी नहीं रह सकता । जाति नहीं, पानी चाहिए ! इस प्रसंग में बुद्ध के एक शिष्य 'आनन्द' की बात प्रस्तुत की जा सकती है। 'आनन्द' किसी गाँव में गये तो उन्हें प्यास लग आई । उन्होंने देखा कि एक बालिका कुएँ पर पानी भर रही है। वे उसके पास पहुंचे और उससे कहा- "बहन, पानी पिला दो।" बालिका ने कहा--"मैं चाण्डाल की कन्या हूँ।" उस बालिका के इस स्पष्ट कथन के उत्तर में आनन्द ने बहुत ही सुन्दर बात कही है । इतनी सुन्दर और आदर्शयुक्त कि २५०० वर्षों में फिर कभी वैसी बात सुनने को नहीं मिली । 'आनन्द' ने अपने स्वाभाविक सहजभाव से कहा-"बहन, मैंने जाति तो नहीं माँगी, केवल पानी माँगा है । मुझे तुम्हारी जाति नहीं पीना है, पानी पीना है !" आनन्द के इस आदर्शपूर्ण स्पष्टीकरण से शूद्र बालिका का जाति-संकोच विलीन हो गया और उसने पानी पिला दिया। आनन्द ने आनन्दपूर्वक पानी पिया। शूद्र बालिका सोचने लगी-“भारतवर्ष में क्या अब भी ऐसे व्यक्ति मौजूद हैं जो जाति नहीं, पानी पूछते हैं । और तब उस बालिका ने साहस के साथ पूछा 'क्या भूतल पर कोई ऐसी जगह भी है, जहाँ हम भी दूसरों की भाँति बैठ कर अपना जीवन प्रशस्त कर सकें ?" ___ आनन्द ने कहा-“क्यों नहीं ? सम्पूर्ण भूमण्डल पर प्रत्येक जाति और वर्ण का समान अधिकार है । जहाँ एक ब्राह्मण जा सकता है, वहाँ तुम भी जा सकती हो । बुद्ध के समवसरण में जितना आदर एक ब्राह्मण को मिलता है, उतना ही चाण्डाल को भी मिलेगा। अन्त में वह चाण्डालकन्या बुद्ध की शरण में जाती है और भिक्षुणी बन जाती है । जब ऐसी आदर्श की बातें आती हैं तो निःसन्देह हृदय गद्गद् हो जाता है । हम अपने जैन-संघ की गौरव-गाथाएँ भी सुनते और जानते हैं कि उसने भी कितना उदार एवं व्यापक दृष्टिकोण अपनाया था। महात्मा हरिकेशबल और मुनिवर मेतार्य की कथाएँ जैन-धर्म और जैन-संघ की अतिभव्य एवं उज्ज्वल कथाएँ हैं, जो हमें आज भी प्रकाश दे रही है। किन्तु दुर्भाग्य से हमने अपनी आंखें मूद ली हैं और कूपमण्डूक की भाँति हम अन्धकार में ही अपना कल्याण खोज रहे हैं। हमने अहिंसा के व्यापक स्वरूप की ओर कभी नजर नहीं डाली। जिसका दुःखद परिणाम यह हुआ कि इस सामाजिक हिंसा से आज भी हम चिपके हुए हैं । समय और परिस्थितियों के परिवर्तन ने अब हमारे सामने गहराई से सोचने और समझने का सुअवसर प्रदान किया है। जिसका सदुपयोग इस रूप में करना है कि हम सत्य के दिव्यप्रकाश में प्रचलित सामाजिक परम्पराओं को देखें, उनकी शव-परीक्षा करें और उनके अभिशापरूप सामाजिक हिंसा से बचने की चेष्टा करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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