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________________ वर्ण-व्यवस्थागत सामाजिक हिंसा आता है | उसने माँस खाना और मदिरा पीना छोड़ दिया है । वह जैन-धर्मानुसार अष्टमी और चतुर्दशी का व्रत भी करता है । आपके धार्मिक जीवन की प्रमुख क्रियाएँ - 'सामायिक' और 'पौषध' भी वह करता है । सन्तों के दर्शन भी करता है | परन्तु जब वह व्याख्यान सुनने आता है तो उसे निर्देश दिया जाता है - 'नीचे बैठ कर सुनो !' २१३ वह बेचारा नीचे बैठ कर सुनता है और आप चौक की ऊँचाई पर बैठ जाते हैं। अब इसमें अन्तर क्या पड़ा ? जो हवा उसे छूकर आ रही है, वह आपको भी लग रही है । तो अब आप ईश्वर के दरबार में फरियाद ले जाइए कि हवा हमें भ्रष्ट कर रही है, अत: उसे इधर बहने से रोक दीजिए ! सूर्य का भी जो प्रकाश उस पर पड़ रहा है, वही आप पर भी पड़ रहा है ! सन्त की जो वाणी उसके कानों में पड़ रही है, वही आपके कानों में भी पड़ रही हैं ! शास्त्र का जो पाठ बोला जा रहा है वह इतना पवित्र है कि जिसकी कोई सीमा नहीं है । तो उस पाठ की पवित्र ध्वनि को आप अपने ही कानों में सुरक्षित रख लीजिए। दीवार खींच दीजिए, जिससे कि वह उद्घोष उसके कानों में पड़ कर अपवित्र न हो जाए । भला, यह भी कोई युक्तिसंगत बात है कि एक वर्ग अपनी मनमानी विशिष्टता को प्रदर्शित करने के लिए दूसरे वर्ग के समान अधिकारों पर अवाँछनीय प्रतिबन्ध लगाए और सामाजिक नियमों का दुस्साहस के साथ उल्लंघन करे | अस्पृश्यता आज के इस प्रगतिवादी युग में भी ऐसे संकीर्ण विचार के लोग देखे जाते हैं कि यदि हरिजन आया और सन्त के पैर छू गया तो वे दूर खड़े-खड़े ही वन्दना कर लेते हैं और साधु के चरण नहीं छूएंगे, क्योंकि वे चरण अछूत जो हो गए हैं ! किन्तु इसी बीच यदि कोई दूसरा आ गया और उसने चरण छू लिए तो वे सेठजी आए और उन्हीं चरणों को छू गए। बीच में दूसरे के छूने से शायद उनकी अछूत उतर गई और अब वे चरण छूने योग्य हो गए । मैंने जब एक हरिजन भाई के साथ ऐसा व्यवहार होते देखा तो चेतावनी दी कि यह तो भगवान् महावीर की पवित्र वाणी का अपमान है कि एक हरिजन तो जूतियों में बैठकर सुने और आप अपनी मनमानी विशिष्टता के कारण दरियों पर बैठ कर सुनें । मेरी चेतावनी पर इन्होंने भगवान् महावीर की वाणी का आदर करके उक्त हरिजन बन्धु को दरी पर बिठलाना शुरू किया। फिर भी कुछ भाई तो ऐसे थे, जो उसे दरी पर बैठा देख स्वयं नीचे बैठ जाते और नीचे बैठे-बैठे ही व्याख्यान सुनते थे । इसमें भी कोई आपत्ति नहीं, परन्तु घृणा से किया हुआ यह त्याग भी वास्तविक नहीं है । आशा है, वे भाई भी धीरे-धीरे इस बात को भलीभाँति समझ जाएँगे । आज का मानव अपने मन की संकीर्णता में कितना बुरी तरह उलझा हुआ है ? भगवान् महावीर ने अपने युग में इस मानसिक संकीर्णता को सुलझाया था किन्तु वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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