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अहिंसा-दर्शन
आज भी पूरी तरह नहीं सुलझ पाई । उनके बाद ढाई हजार वर्ष की लम्बी परम्परा गुजरी और आचार्यों ने समय-समय पर अस्पृश्यता का तीव्र विरोध भी किया, फिर भी वह उलझन आज तक भी बनी हुई है । दुर्भाग्य से कई ऐसे भी साधु आए, कि जिन्होंने जनता की रूढ़िवादी आवाज में आवाज मिला दी और अस्पृश्यता को प्रोत्साहन देने लगे। जिसके लिए जैन-संस्कृति को एक दिन घोर संघर्ष करना पड़ा था, जिसके लिए वास्तिकता का उपालम्भ तक भी सहना पड़ा था। दुर्भाग्य से आज वही पवित्र संस्कृति घृणित अस्पृश्यतावाद के दलदल में फंस गई । यहाँ तक कि अस्पृश्यता के पक्ष में शास्त्र के प्रमाण भी आने लगे । कहा जाने लगा कि वह ऊँचा है, वह नीचा है और जो नीचा है वह अपने अशुभ कर्मों का फल भोग रहा है । किन्तु शास्त्र ने आरम्भ में ही इतनी बड़ी बात कह दी थी कि-सब मनुष्यों की जाति 'एक' ही है ।६ मनुष्यों में दो जातियाँ हैं ही नहीं । फिर भी संकीर्णतावश उसमें उच्चता और नीचता खोजी जाने लगी। इस वर्ग-भेद ने अखण्ड मानवपरिवार को विभिन्न टुकड़ों में बाँट दिया और जातिमद ऐसा चढ़ा कि शास्त्रों की पवित्र आवाज क्षीण हो गई। हमने वास्तविकता को भुला दिया और अपने मिथ्याभिमान के कारण दूसरे मनुष्य का अपमान करने को उतारू हो गए।
____ यदि एक हरिजन माई पवित्र विचारों का अनुयायी हो चुका है । वह भगवान् महावीर के उपदेशों को स्वीकार कर चुका है, उसके हृदय में जन-धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा और अटूट प्रीति है, फिर भी एक जैन उसकी कोई परवाह नहीं करता और इन्सान की तरह बैठने का हक भी उसे नहीं देना चाहता । क्या यही आपका सहधर्मीवात्सल्य है ? भगवान महावीर ने आपको सहधर्मी के साथ क्या ऐसा ही व्यवहार करना सिखाया था ? जब वह सहधर्मी के प्रति ऐसा व्यवहार कर सकता है तो फिर दूसरों के साथ वह कटु व्यवहार क्यों न करेगा ?
उत्तर प्रदेश में पहले ओसवाल और अग्रवाल एक दूसरे के यहाँ भोजन नहीं करते थे । समय और समझ के प्रभाव से अब कुछ ठीक-ठीक समझौता होता जा रहा है। यह संक्रामक रोग तो यहाँ तक फैला हुआ है कि ओसवालों और अग्रवालों में भी अनेक टुकड़े हो गए हैं और वे मूलतः एक वर्ग के होते हुए भी एक-दूसरे उपवर्ग के हाथ का भोजन नहीं करते ।
वस्तुतः मध्यकालीन संस्कृति में कुछ ऐसी जड़ता आ गई थी कि वह सब जगह से हट कर एकमात्र चौके में बन्द हो गई । लोग न जाने कैसे समझ बैठे कि 'अमुक का छुआ खा लिया तो धर्म चला जाएगा।'
एक ओर अद्वैत के उपासक, उद्घोषक तथा बड़े-बड़े आचार्य वेदान्त के सूत्र भी जनता के सामने लाते रहे कि सारा संसार पर-ब्रह्म का ही रूप है----"एक ब्रह्म ही
६ “मनुष्यजातिरेकैव जातिकर्मोदयोद्भवा ।"
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