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हिंसा-दर्शन
रहता है; और जब अच्छाइयाँ प्राप्त कर लेता है, तो वही 'भगतजी' के नाम से या और किसी अच्छे नाम से प्रसिद्ध हो जाता है।
अब जरा सैद्धान्तिक दृष्टि से भी विचार करें। सिद्धान्त की मान्यता है कि साधु का गुणस्थान छठा है और छठे गुणस्थान में नीचगोत्र का उदय नहीं होता । हरिकेशी नीचजाति में उत्पन्न हुए थे और साधु बन गए। अब प्रश्न यह है कि साधु बन जाने पर वह नीचगोत्र में रहे या नहीं ? यदि वे नीचगोत्र में ही रहे तो उन्हें छठा गुणस्थान नहीं होना चाहिए और साधु का दर्जा भी नहीं मिलना चाहिए । किन्तु शास्त्र यह बतलाता है कि वे तो महामहिम मुनि थे और उन्हें छठा गुणस्थान प्राप्त था। छठे गुणस्थान में नीचगोत्र नहीं रहता है ! इसका अभिप्राय स्पष्ट है कि हरिकेशी नीचगोत्र से बदल कर उच्चगोत्र में पहुंच चुके थे । तो अब आपको स्वयं ही यह फैसला करना पड़ेगा कि नीचगोत्र भी उच्चगोत्र के रूप में बदल जाता है। उच्च गोत्र और नीचगोत्र दोनों गोत्र-कर्म की अवान्तर प्रकृतियाँ हैं । अवान्तर प्रकृतियों का एक-दूसरी के रूप में संक्रमण हो सकता है । यह बात उस सिद्धान्त को जानने वाले भलीभाँति समझ सकते हैं ।
हरिकेशी मुनि नीचगोत्र की गठरी अपने सिर पर रख कर छठे गुणस्थान की ऊँचाई पर नहीं चढ़े थे। यह बात इतनी ठोस और सत्य है कि जब तक कोई शास्त्र की प्रामाणिकता मानने से इन्कार न कर दे, तब तक वह इससे भी इन्कार नहीं कर सकता । यदि कोई शास्त्र के निर्णय को स्थायीरूप से कायम रखना चाहता है तो उसे उच्च-गोत्र और नीच-गोत्र के आजीवन स्थायित्व की मान्यता को खत्म करना ही होगा। गोत्र के साथ छुआछूत का सम्बन्ध नहीं
उच्च-गोत्र और नीचगोत्र का छुआछूत के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। छुआछूत तो केवल लौकिक कल्पनामात्र है । जो कष्ट में पड़ा है और बेहोश हो रहा है, आप उसके पास खड़े-खड़े देखते हैं और अछूत समझ कर उसे हाथ नहीं लगा सकते , कोई भी सच्चा सिद्धान्त इस धारणा का समर्थन नहीं करेगा । सच्चे शास्त्र इस निन्द्य व्यवहार का अनुमोदन कभी नहीं करते । जब हम छुआछूत के सम्बन्ध में विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि छुआछूत की कल्पना के साथ गोत्र-कर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है । गाय, भैस, घोड़ा, हाथी जितने भी पशु हैं, उनको शास्त्रों के अनुसार आजन्म नीच-गोत्र रहता है। किसी भी पशु में उच्च-गोत्र नहीं माना गया है । यदि नीच-गोत्री होने मात्र से ओई अछूत हो जाता है तो सभी पशु अछूत होने चाहिए। गाय और भैंस भी अछूत होने चाहिए । किन्तु उनके दूध को तो आप हजम कर जाते
४ आध्यात्मिक विकासक्रम की भूमिकाओं में से एक सर्वविरतिरूप पूर्ण चारित्र की
भूमिका, जो साधु की भूमिका कहलाती है ।
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