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मानवता का भीषण कलंक
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हैं और फिर मनुष्य के लिए छुआछूत की बातें करते हैं ! जो घोड़े पर सवार होते हैं और हाथी पर बैठने में भी अपना सौभाग्य मानते हैं ! उस समय वे क्यों भूल जाते हैं कि ये पशु नीच-गोत्री हैं और इस कारण अछूत हैं-यदि इन्हें छुएँगे तो धर्म डूब जाएगा और जाति विजाति हो जाएगी।
कितने आश्चर्य और खेद की बात है कि पशुओं को छूने वाले, उनका दूध पीने वाले, उन्हें मल-मल कर स्नान कराने वाले और उन पर सवारी करने वाले लोग ही जब मनुष्य का प्रश्न सामने आता है तो नीच-गोत्र की बात कह कर और अछूतपन की कल्पना करके अपने कर्तव्य से भ्रष्ट होते हैं ; अपने विवेक का दिवाला निकालते हैं; न्याय और नीति का गला घोंटते हैं, और धर्म से दूर भागते हैं ! किन्तु सिद्धान्त की जो वास्तविकता है, उसी को सर्वतोभावेन अंगीकार करना, हमारा मुख्य कर्तव्य है। सम्यक्त्वसम्पन्न चाण्डाल भी देवता
जैन-धर्म एक ही सत्य-संदेश ले कर आया है और वह सन्देश सद्गुणों का है । चाहे कोई कितना ही पापी क्यों न रहा हो, वह जब तक दुराचारी है, तभी तक पापी है। किन्तु ज्यों ही वह सदाचार की श्रेष्ठ भूमिका पर आता है, और उसके जीवन में सदाचार की सुगन्ध फैल जाती है तो वह ऊपर उठता है और उसके लिए मोक्ष का दरवाजा भी खुल जाता है । जैन-धर्म यह कभी नहीं कहता कि मोक्ष ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य को ही मिलेगा, और शूद्र के लिए मोक्ष के मन्दिर पर कड़ा प्रतिबन्ध है । इस सम्बन्ध में हमारे आचार्य समन्तभद्र ने कहा है-"अगर कोई चाण्डाल से भी पैदा हुआ है, किन्तु उसे सम्यग्दृष्टि प्राप्त हो गई है तो वह मनुष्य नहीं, बल्कि देवता है ! तीर्थंकरदेव उसे देवता कहते हैं। उसके भीतर भी दिव्य ज्योति ठीक उसी प्रकार झलक रही है, जैसे राख से ढंके हुए अङ्गार में ज्योति विद्यमान रहती है और भीतर ही भीतर चमकती है।"५
मिथ्यादृष्टि देवता की तुलना में भी सम्यग्दृष्टि शूद्र कहीं अधिक ऊँचा है। यदि ऐसा न माना जाएगा तो सद्गुणों की प्रतिष्ठा समाप्त हो जाएगी। लोग जाति और सम्पत्ति को ही पूजेंगे और गुणों की उपेक्षा करेंगे, गुणों की कक्षा नीची हो जाएगी और उसके प्रति आदर का भाव भी समाप्त हो जाएगा।
जिस जाति में गुणों का आदर होता है, उसमें सद्गुण, सदाचार और अच्छाइयाँ सर्वत्र पनपती हैं। दुर्भाग्य से हम उच्च-जाति वाले तथाकथित सदाचारी नीच-जाति वालों को समाजसेवा और धर्मसाधना में भी अग्रसर नहीं होने देते और उन्हें मजबूर करते हैं कि वे वहीं के वहीं सर्वथा अलग-अलग खड़े रहें । वेश्या के सदाचारी बनने पर भी घणा
५ सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् ।
देवा देवं विदुर्भस्मगूढांगारान्तरोजसम् ।।
-रत्नकरण्डश्रावकाचारः
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