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मानवता का भीषण कलंक
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है। ऐसी स्थिति में किसी भी कुल की अप्रतिष्ठा या प्रतिष्ठा कोई शाश्वत वस्तु नहीं है । वह तो जनता के विचार-कल्पना की चीज है, वास्तविक वस्तु नहीं है । गोत्र-परिवर्तन
दूसरा प्रश्न यह है कि गोत्र बदला जा सकता है या नहीं ? मान लीजिए कि किसी को नीच गोत्र मिला है ; किन्तु उसने तत्त्व का चिन्तन और मनन किया है और उसके फलस्वरूप उच्चश्रेणी का आचरण प्राप्त किया है, तो उसी जीवन में उसका गोत्र बदल सकता है या नहीं ? यदि तर्क द्वारा यह सिद्ध हो जाता है कि गोत्र नहीं बदल सकता तो मुझे अपने विचारों को समेट कर एक कोने में डाल देना पड़ेगा। किन्तु यदि गोत्र का बदलना प्रमाणित हो जाता है तो आपको भी अपना विचार बदल देने के लिए तैयार रहना चाहिए। सत्य सर्वोपरि है और बिना किसी आग्रह के हम सबको उसे अपनाने के लिए तैयार रहना चाहिए।
___ कल्पना करें-एक उच्चगोत्री है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, अग्रवाल अथवा ओसवाल है, परन्तु आज वह बुरा काम करता है और मुसलमान बन जाता है । हालाँकि मैं मुसलमान को भी घृणा की दृष्टि से नहीं देखता हूँ, किन्तु रूपक ला रहा हूँ और आपको भी उसी दृष्टि से उस रूपक को समझना चाहिए। यदि एक ओसवाल या अग्रवाल मुसलमान बन जाता है तो क्या आप उसे उस बदले हुए दूसरे रूप में समझते हैं या उसी पहले के रूप में स्वीकार करते हैं ? आप उसे दूसरे रूप में स्वीकार करते हैं। अर्थात् वह आपकी निगाहों से गिर जाता है और उसका गोत्र भी उच्च नहीं रह जाता है । अब आप उसे पहले की तरह अपने साथ बिठा कर एक साथ भोजन नहीं करते। इसका अर्थ यह है कि न उच्चगोत्र स्थायी रहता है और न जन्मगत जातीय धारणा ही। जब तक वह ऊँचाई पर कायम रहता है, तब तक उच्च बना रहता है और जब उसका पतन हो जाता है और वह अपने आचरण में एक बड़ी बुराई पैदा कर लेता है और तदनुसार किसी दूसरे रूप में चला जाता है, तो इसे गोत्र बदलना ही कहा जा सकता है । पहले वह व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या और कुछ भी क्यों न रहा हो, किन्तु अब तो वह प्रत्यक्षरूप में बदल गया है और इस कारण उसका गोत्र भी बदल गया है।
अस्तु, जो बात उच्चगोत्र के सम्बन्ध में है, वही बात नीचगोत्र के सम्बन्ध में क्यों नहीं स्वीकार करते ? जब गोत्रकर्म का एक हिस्सा-उच्चगोत्र बदल जाता है और नीचगोत्र बन जाता है तो दूसरा हिस्सा क्यों नहीं बदल सकता ? नीचगोत्र को उच्चगोत्र में बदलने से रोकने वाला कौन है ? चाहे जितनी सचाई और पवित्रता को अपनाने पर भी नीचगोत्र बदल नहीं सकता और वह जन्मभर नीचा ही बना रहेगा, यह कहाँ का न्यायसंगत सिद्धान्त है ? जब उच्चगोत्र स्थायी नहीं रहता है, तब फिर नीचगोत्र किस प्रकार स्थायी रह सकता है ?
अभिप्राय यह है कि जब मनुष्य बुराई का शिकार होता है, तब नीचगोत्र में
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