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________________ अहिंसा-दर्शन मात्र तलवारों को सदियों से उठाते भी आ रहे हो । और इधर मैंने तो अपने कुल में, अपने पुरुषार्थ पर, बस यही एक तलवार उठाई है । किन्तु यही तलवार तुम्हें बतलाएगी कि युद्ध में किसकी तलवार ज्यादा चमकती है ? उसने निर्भीकभाव से घोषणा की - " मैं सूत हूँ या सूत का लड़का हूं, तो क्या हुआ ? मैं कोई भी हूँ, तुम्हें इससे क्या प्रयोजन है ? पुराने जन्म के संस्कारों के कारण मैंने कहीं भी जन्म लिया है, उसे क्या देखते हो ? अपने पुरुषार्थ और प्रयत्न के द्वारा मैंने अपने जीवन का जो यह नव-निर्माण किया है; यदि साहस रखते हो तो इसे परखने की कोशिश करो। तुम लोग जन्म से क्षत्रिय हो, और मैं पुरुषार्थ - कर्म से क्षत्रिय बना हूँ । रण-क्षेत्र बतला देगा कि वास्तव में कौन सच्चा क्षत्रिय है ?" 3 २०२ कर्ण की इस ज्वलन्त वाणी को हमें अपने मन में सुरक्षित रख लेना चाहिए । कर्ण के इस निर्भीक भाव को हमें अपने अन्तःकरण की गहराई में ले जाना चाहिए कि - " कोई किसी भी जाति में पैदा हुआ हो अथवा रहता हो, किन्तु अपने गुणों के द्वारा वह ऊँचा उठ सकता है और पवित्र बन सकता है ।" वाल्मीकि पहले किस रूप में थे ? दस्यु ही थे न ! परन्तु जब उनका जीवन बदला तो आखिर उन्हें महर्षि के पद पर प्रतिष्ठित करना ही पड़ा । हरिकेशी कुछ भी रहे हों, किन्तु जब उन्होंने आदरणीय गुण प्राप्त कर लिए तो उनका आदर किया ही गया । आखिर, गुण कब तक ठुकराए जा सकते हैं ? कभी न कभी तो उनकी चमक बाहर आएगी ही, और जीवन में दिव्य प्रकाश पैदा हो कर रहेगा ही । जैनों में उच्चगोत्र और नीचगोत्र की बात चलती है । कुछ लोग इस विषय में पूछ लेते हैं और कई मन में ही घुटते रहते हैं । कोई पूछे या न पूछे, जब हम विचारक्षेत्र में कूद पड़े हैं तो कभी-कभी कोने में और कभी मैदान में भी विचार कर ही लेते हैं । स्वयं विचार करके और जैन-शास्त्रों का अध्ययन करके जो कुछ संचय किया है, उस तत्त्वज्ञान को स्पष्टरूप से जनता के सामने रख देना और उलझी हुई गुत्थियों को सुलझाने का भरसक प्रयत्न करना ही हमारा कर्त्तव्य है । यदि कोई प्रतिष्ठित माने जाने वाले कुल में पैदा हो गया है तो वह उच्चगोत्रीय कहलाया और यदि अप्रतिष्ठित समझे जाने वाले कुल में उत्पन्न हो गया तो नीचगोत्रीय कहलाने लगा । इस सम्बन्ध में पहली बात जो ध्यान देने योग्य है, यह है कि कुल की प्रतिष्ठा क्या सदैव एक-सी रहती है ? नहीं, वह तो उस कुल के व्यक्तियों के व्यवहार के द्वारा बदलती भी देखी जाती है । एक व्यक्ति का श्रेष्ठ आचरण कुल की प्रतिष्ठा को बढ़ाता है, और इसके विपरीत किसी दूसरे व्यक्ति का नीच और गलत आचरण कुल की प्रतिष्ठा में धब्बा लगा देता है, सारी प्रतिष्ठा को धूल में मिला देता ३ सूतो वा सूतपुत्रो वा, यो वा को वा भवाम्यहम् । ममायत्तं हि पौरुषम् ॥ दैवायत्तं कुले जन्म, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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