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________________ मानवता का भीषण कलंक २०१ विशेषता तप में है, विशेषता गुण में है और विशेषता जीवन की पवित्रता में है। जाति में कोई विशेषता दिखाई नहीं देती, वह तो केवल उच्चता के अहंकार से पैदा होने वाली कोरी कल्पना है। हरिकेशी साधु चाण्डाल का लड़का था और उसने चाण्डाल के कुल में जन्म भी लिया था, किन्तु उसके ऐश्वर्य को देखिए ! उसके यशःसौरभ को परखिए कि देवगण भी उसका जयघोष कर रहे हैं ।२ एक-एक शब्द में चिरन्तन सत्य की गंगा बह रही है। एक-एक शब्द में गुणों के प्रति अनुरागरस भरा है ! शताब्दियों से इस गाथा में से अमृत का झरना बह रहा है, किन्तु दुर्भाग्य से अपने भीतर उसे समा लेने की शक्ति हम में नहीं रह गई है। हम उसे पढ़ते हैं और आगे चल देते हैं। विचारों के इस अमृत-निर्झर को हम अपने जीवन में नहीं उतार पाते हैं । शास्त्रकार कितने प्रभावशाली शब्दों में चुनौती देकर, मानो कह रहे हैं ! उत्तराध्ययन की यह पवित्र वाणी आज भी मौजूद है और हमारे पक्ष का पूर्णतः समर्थन करती है । जात-पाँत के विरुद्ध इससे बड़ा और क्या प्रमाण चाहिए ? यदि इतने पर भी किसी को समझ नहीं आती, तो उसके लिए दूसरे प्रमाण भी क्या निरर्थक ही सिद्ध न होंगे ? यदि किसी ने नीची समझी जाने वाली जाति में जन्म ले भी लिया तो क्या हो गया ? वह उसी जीवन में दूसरी बार फिर जन्म ले सकता है। दूसरा जन्म गुणों के द्वारा लिया जाता है, मनन और चिन्तन के द्वारा लिया जाता है । पुरुषार्थ एवं प्रयत्न के द्वारा अपने हाथों अपने जीवन का जो निर्माण होता है, वही सबसे बड़ा निर्माण समझना चाहिए । अलंकार की भाषा में वही दूसरा जन्म है। सूतपुत्र दानी कर्ण ___ महाभारत में एक कथा आती है-कर्ण एक रथचालक बढ़ई का लड़का सूतपुत्र है, यह बात प्रसिद्ध थी। जब वह युद्ध के मैदान में उतरता है तो जन्म-जात क्षत्रिय उसका उपहास करते हैं और चिढ़ाते हैं कि- "आप यहाँ कैसे आ पहुँचे ? यह तो युद्धक्षेत्र है। यहाँ तो तलवारों का काम है ! अतः युद्धक्षेत्र में वही आ सकता है, जो तलवार का संचालन कर सकता हो, साथ ही उसे इसका अधिकार भी प्राप्त हो, किन्तु सूत-पुत्र को तो युद्ध करने का अधिकार नहीं है।" इस प्रकार का मजाक सुन कर भी वह दृढ़-संकल्पी और आत्म-विश्वासी वीर कर्ण न किंचित सहमा और न शर्माया ही। वह उन जन्म-जात क्षत्रियों को ललकारता है । हाँ, तो कर्ण युद्ध-क्षेत्र में पहुँच कर कहता है-"तुम जन्म-जात क्षत्रिय हो और २ सक्खं खु दीस इ तवोविसेसो, न दीसइ जाइविसेस कोवि । सोवागपुत्तं हरिएससाहुं, जस्सेरिसा इड्ढी महाणुभावा ।। -उत्तराध्ययन १२, ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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