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________________ मानवता का भीषण कलंक ___'अहिंसा' का रूप बहुत व्यापक है। वैयक्तिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन के विविध रूपों में हिंसा परिलक्षित होती है। जिस किसी भी क्षेत्र में और जिस किसी भी रूप में; जो भी ज्ञात या अज्ञात, सूक्ष्म या स्थूल, बाह्य या आन्तरिक हिंसा हो रही है, उस क्षेत्र में और कुछ रूप में हिंसा का व्यापक विरोध, प्रतिरोध एवं निरोध होना ही 'अहिंसा' है। इस दृष्टिकोण से देखने पर भलीभाँति ज्ञात हो सकेगा कि अहिंसा का स्वरूप बहुत व्यापक है और उसके रूप भी अनेक हैं। यही कारण है कि अहिंसा को अनेक वर्गों में विभक्त करके प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। अहिंसा के विराट् स्वरूप का चिन्तन करते हुए यह संभव नहीं है कि उस पर पूर्ण प्रकाश डाला जा सके। फिर भी जब हमने अहिंसा के महत्त्व को स्वीकार किया है, उसके औचित्य को अपने जीवन का आदर्श माना है, और उसकी परिधि में रह कर ही जीवन-व्यवहार चलाने का सत्य संकल्प किया है। साथ ही यह भी मान लिया है कि अहिंसा के द्वारा ही व्यक्ति, समाज और विश्व का त्राण संभव है, तो हम पर यह कर्त्तव्य और दायित्व आ जाता है कि हम अधिक गहराई में उतर कर अहिंसा को समझें और दूसरों को भी समझाएं। .. हिंसा के दो रूप अहिंसा को भली-भाँति समझने के लिए पहले हमें हिंसा के दों रूपों पर विचार करना होगा। उनमें से एक रूप वह है, जिसे हम ‘आन्तरिक' कह सकते हैं । तात्पर्य यह है कि एक हिंसा वह होती है-जो क्रोध, मान, माया, लोभ एवं वासना के रूप में भीतर ही भीतर सुलगती रहती है । हम अपने ही कुप्रयत्नों से अपनी आत्मा की हत्या करते रहते हैं। उदाहरणस्वरूप-एक व्यक्ति दूसरे के बड़प्पन को नहीं सह सकता है। वह मन ही मन उसे देख कर जलता है और उस जलन में वह अपनी ही हिंसा कर लेता है। यदि किसी के सद्गुणों को देखता है और किसी की प्रशंसा सुनता है, तो भी वह मन ही मन जलता है और अपने अहंभाव में दूसरे के सद्गुणों को स्वीकार नहीं करता। इतना ही नहीं, बल्कि वह दूसरे के सद्गुणों से घृणा भी करने लगता है । ऐसा करने वाला एक प्रकार से अपनी आत्म-हत्या ही कर रहा है। जब कोई आदमी बंदूक या पिस्तौल से अपने को गोली मार लेता है तो यह समझा जाता है कि आत्म-हत्या की गई है; परन्तु वह तो शरीर की हत्या है, आत्मा की नहीं। किन्तु मनुष्य जब किसी बुराई को अपने अन्दर डाल लेता है और उसी में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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