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________________ १६६ अहिंसा-दर्शन निरन्तर गलता है और सड़ता रहता है तो यह बंदूक या पिस्तौल से गोली मार लेने की अपेक्षा भी बहुत बड़ी हिंसा है, क्योंकि यह बुराई हमारे सद्गुणों का सर्वनाश कर डालती है। इस प्रकार भीतर ही भीतर होने वाली हिंसा 'आन्तरिक' है और यह भाव-हिंसा की परिचायिका है । __ हिंसा का दूसरा रूप ‘बाह्य' (बाहरी) है । वास्तव में हमारे अन्दर की ही बुराई बाहर की हिंसा को प्रेरित करती है । इस प्रकार जैन-धर्म के अनुसार हिंसा के दो नाले हैं, दो प्रवाह हैं। एक अन्दर ही प्रवाहित होता रहता है, और दूसरा बाहर । हिंसा को यदि अग्नि कहा जाए तो समझना चाहिए कि हिंसा की अग्नि भीतर भी जल रही है और बाहर भी। भ्रान्तियाँ __ यदि इस दृष्टिकोण को सामने रखकर विचार करते हैं तो अहिंसा का सिद्धान्त बहुत व्यापक प्रतीत होता है। किन्तु यह जितना व्यापक है, उतना ही जटिल भी है । जो सिद्धान्त जितना अधिक व्यापक बन जाता है, वह प्रायः उतना ही अटपटा भी हो जाता है और साथ ही उलझ भी जाता है। यही कारण है कि जीवन-क्षेत्र में कभीकभी अहिंसा के सम्बन्ध में भाँति-भाँति की विचित्र भ्रान्तियाँ देखी जाती हैं । जिसका परिणाम यह होता है कि लोग कभी हिंसा को अहिंसा, और अहिसा को हिंसा समझ बैठते हैं। इस प्रकार की भ्रान्तियों ने प्राचीन काल में और आधुनिक काल में भी अनेक प्रकार के मतमतान्तरों को जन्म दिया है। जहाँ सेवा है, अहिंसा है, करुणा एवं दया है, दुर्भाग्य से वहाँ हिंसा समझी जा रही है और एकान्त पाप समझा जा रहा है। वस्तुस्थिति यह है कि सिद्धान्त के अनुसार जो वास्तविक 'अहिंसा' है, उसी को मनुष्य के भ्रान्त मन ने 'हिंसा' समझ लिया है। इसके विपरीत कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हिंसा हो रही है, बुराई पैदा हो रही है और गलत काम से किसी को कष्ट पहुंचाया जा रहा है, जिसके फलस्वरूप दूसरे प्राणियों के अन्दर प्रतिहिंसा की प्रतिशोधनकारी लहर पैदा हो रही है, किन्तु दुर्भाग्य से उसे 'अहिंसा' का नाम दिया जाता है। यही कारण है कि जब धर्म के नाम पर या जात-पात के नाम पर हिंसा प्रदर्शित होती है, तो उसे हम अहिंसा समझ लेते हैं । इस तरह मानव-जाति का चिन्तन इतना उलझ गया है कि कितनी ही बार हिंसा के कार्यों को अहिंसा का, और अहिंसा के कार्यों को हिंसा का रूप दे दिया जाता है। हिंसा और अहिंसा-सम्बन्धी इस प्रकार की उलझनें होने पर भी विचार तो करना ही होगा । बल्कि ये मुख्य उलझनें हैं; इसलिए इस विषय में क्रमशः विचार करना और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है । हम इन विचारों पर अपने आप में चिन्तन कर लेना चाहते हैं । हालांकि हमारी बुद्धि बहुत सीमित है, किन्तु जहाँ तक शास्त्रों का सत् सहयोग काम देता है और हमारा चिन्तन-मनन हमारी सहायता करता है, वहाँ तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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