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अहिंसा-दर्शन
पं० आशाधरजी ने इसी बात को स्पष्ट शब्दों में कहा है-"जहाँ प्रमाद है; वहीं हिंसा है और जहाँ प्रमाद नहीं है वहाँ हिंसा भी नहीं है।"१०
___ इसी दृष्टि को अपनाते हुए ऐसा कहा जा सकता है कि-यदि हम हिंसा और अहिंसा के तत्त्व को समझ लें तो जैन तो सम्प्रदायों में आज जो दया, दान आदि विषयों पर अशोभनीय संघर्ष चल रहे हैं, वे बहुत कुछ अंशों में समाप्त हो सकते हैं ।
किसी जीव की रक्षा करना, किसी के मरने-जीने की इच्छा भी न करना; ऐसी अस्पष्ट बातों को ले कर और इन्हें तूल देते हुए हमारे कुछ साथी जो ऊपर ही ऊपर भटक-से रहे हैं, इसका प्रमुख कारण यही है कि उन्होंने हिंसा और अहिंसा का मर्म समझने का प्रयत्न नहीं किया है। उनकी मान्यता के अनुसार यदि धूप में पड़े हुए जीव को छाया में रख दिया तो हिंसा हो गई ! किन्तु इस क्रिया के पीछे कौनसी मनोवृत्ति काम कर रही है ? इसका उन्होंने कोई विचार ही नहीं किया । यदि मनोवृत्ति-विशेष का विचार न किया जाए तो साधु अपने पात्र में पड़ी हुई मक्खी को भी कैसे निकाल सकते हैं ? कैसे उसकी चिकनाई को राख से सुखा सकते हैं ? शास्त्र तो किसी जीव को ढंकना भी पाप कहते हैं, फिर साधु उसे राख से क्यों ढंकते हैं ?
वास्तविकता तो यह है कि जब मनोवृत्ति को भुला दिया जाता है और केवल शब्दों की ही धड़-पकड़ से काम लिया जाता है तो उसके फलस्वरूप हिंसा और अहिंसा का द्वन्द्व सामने आता है और संघर्ष पैदा होते हैं। इनसे बचने का एकमात्र उपाय यही है कि हम शास्त्रों की शब्दावली को ही पकड़ कर न रह जाएँ, बल्कि शब्दावली के सहारे उस तथ्य की आत्मा को शोधने का प्रयास भी करें। इसी प्रकार किसी व्यक्ति के बाहरी कार्य को देख कर ही जल्दी में अपना कोई अभिमत न बना लें, अपितु उस कार्य के पीछे जो भावना छिपी हुई है, उसे परखने का भी भरसक प्रयत्न करें। ऐसा करने वाला कभी भी भ्रम में नहीं पड़ता। यदि उसे कोई भ्रम होता भी है तो वह शीघ्र ही उससे मुक्त हो जाता है।
१० घ्नतोऽपि कर्षकादुच्चैः पापोऽघ्नन्नपि धीवरः ।
—सागारधर्मामृत, ८२
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